यदि किसी नजदीकी की मृत्यु जीवन का एक बड़ा दुख है तो मोहन न तो सौम्या के मन के नजदीक था और न हीं दया के मन के। कितने आश्चर्य की बात कि इसी मोहन के लिये दोनों बहनों में एक बड़ी प्रतिद्वंदिता हुई थी। सचमुच धन दौलत के आधार पर किया प्रेम स्थायी नहीं होता है। प्रेम  मन में उठी वह तरंग नहीं जो उठकर जल्दी ही समाप्त भी हो जाती है। प्रेम तो शर्करा का जल के प्रति वह समर्पण है जिसमें शर्करा खुद मिटकर भी मिटती नहीं अपितु उस जल को अपनी ही मिठास से भर देती है।
  मोहन की मृत्यु पर न तो सौम्या और न दया का मन रो रहा था। रुदन भी मात्र लोकाचार था। जैसे तैसे तेरह दिन गुजरे। तेरई के बाद जीवन को नवीन तरह आगे बढाना था।
  सौम्या और दया दोनों ही नहीं जानती थीं कि अभी उनके जीवन में बहुत कुछ होना शेष है। इतने वर्षों की नफरत दया पर निकालने का अवसर सौम्या को मिलने बाला है। दया के जीवन का सबसे कठिन समय सामने आने बाला है।
  मोहन और दया के विवाह का कोई कानूनी आधार तो था नहीं। विभागीय रिकार्ड में भी मोहन की पत्नी के रूप में सौम्या का नाम ही दर्ज था। मोहन का सारा फंड सौम्या को मिल गया। साथ में सौम्या की पारिवारिक पैंशन भी आरंभ हो गयी। वहीं दया के हाथ खाली थे। विषम से विषम परिस्थितियों में भी उम्मीद साथ खड़ी होती है। उम्मीद थी कि सौम्या भले ही उससे नाराज है पर वह इतनी कठोर नहीं होगी। दोनों बहनों के मध्य बचपन का स्नेह कुछ तो प्रभाव छोड़ेगा। पर ऐसा हुआ नहीं। सौम्या उससे भी अधिक कठोर निकली जितना कि कोई उम्मीद कर सकता है। अपने कृत्य के समर्थन में उसके पास तर्कों की पूरी सूची थी। उसे लगता कि वह दया के कारण ही आजीवन अपने पति के स्नेह की प्यासी रही। दया के कारण ही मोहन की पत्नी होकर भी पत्नी के अधिकारों से बंचित थी। सौम्या की कल्पना से उपजी कहानी तो दया को आरंभ से आचरणहीन सिद्ध कर रही थी। जुगनू की पत्नी रहते हुए भी दया ने उसके पति पर डोरे डाले थे। उसी समय से दया ने मोहन को अपने हुस्न के वश में कर रखा था। जब वह गांव में पूरे परिवार की व्यवस्था सम्हाल रही थी, यह दया ही तो शहर में रहकर अपने कुक्रत्यों से अपने आगामी जीवन की राह बना रही थी। अब जो सामने आ रहा है, वह और कुछ नहीं अपितु ईश्वर का न्याय है। मैं मोहन की व्याहता पत्नी अपना कोई भी अधिकार दया के साथ नहीं बाटूंगीं। उसे जिस तरह अपना निर्वाह करना है, करे। मैं न तो फंड और न ही अपनी पेंशन में से एक पैसा भी इसे दूंगीं।
  दया के कष्टों का पार नहीं। उसका विवाह मोहन से करने का फैसला देने बाले कुछ पंच या तो भगवान के घर पहुंच गये थे या खुद लाचार थे। कुछ तो वर्तमान स्थिति का दोष ही दया को दे देते। अरे पंचायत तो बस अपना काम कर सकती है। जीवन तो लोगों को खुद बनाना होता है। इज्जत देने से ही इज्जत मिलती है। लगता है कि दया ने जीवन भर सौम्या का सम्मान ही नहीं किया। अब खुद की करनी का परिणाम सामने है। ऐसे में हम क्या कह सकते हैं।
  मायके से भी दया को कोई राहत नहीं मिली। जुगनू की मृत्यु के बाद जब वह मायके पर बोझ बन गयी थी तो इतने समय में तो जमाना बहुत आगे बढ चुका था। परिवार की धारणा में खुद, पत्नी और बच्चे ही शेष रह गये थे। फिर दया का सहारा कौन बनता।
  स्त्री कभी थकती नहीं। संभव है कि इस मान्यता में भी कुछ त्रुटि हो। पर एक माॅ कभी नहीं थकती, यह मान्यता पूरी तरह सही है। जीवन भर कष्टों ने भले ही दया को थका दिया हो फिर भी शुचि की माॅ थकने को तैयार न थी। शुचि के बेहतर भविष्य के लिये दया इस आयु में लोगों के घरों के काम करने को भी मजबूर थी। धनी परिवार में दो बार विवाह होने के बाद भी दया घरेलू नौकरानी का काम कर रही थी। पर शुचि की शिक्षा उसने बंद न करायी। विकट से विकट हालातों से दया दो दो हाथ कर रही थी पर शुचि के भविष्य के लिये किसी तरह की कंजूसी नहीं थी।
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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