वासना में अंधे बने को जीवन में सुख कब मिलता है। आत्मबोध और मन की धिक्कार भले ही सचेत व्यक्ति के लक्षण हैं। कामी का मन कभी भी उसे उसके कृत्य के लिये धिक्कारता नहीं है। हाॅ जब वह अपनी कामना ही पूरी न कर पाये, उस समय जरूर व्यथित हो जाता है। सम्हलता फिर भी नहीं है। कुमार्ग का राही दूसरे साधन तलाशने लगता है।
मोहन के मन में दया से किये कुकर्म से कोई भी आत्मग्लानि न थी। फिर जब दया भी उसकी पत्नी बन वापस आ गयी तब मोहन के कामी मन को यही लगा कि दया का मन भी उसी की भांति क्षुद्र है। यदि ऐसा न होता तो दया इस विवाह के लिये तैयार ही क्यों होती। एक स्त्री के निर्णय के हेतु तक पहुंच पाने की उसकी मानसिक अवस्था न थी।
दया मोहन से विवाह कर ससुराल वापस आयी पर मोहन जैसे राक्षस को उसने पति का दर्जा न दिया। परिस्थितियों से लड़ते लड़ते अब वह पहले जैसी कमजोर न थी। घायल सिंहनी की तरफ आंख उठा पाना भी मोहन के लिये संभव नहीं था। केवल बेटी के लिये दुबारा विवाह बंधंन में बंधने बाली दया के जीवन का उद्देश्य केवल और केवल शुचि थी।
दिन, माह और वर्ष गुजरते गये। मोहन कभी भी उस उद्देश्य में सफल नहीं हो पाया जिसके लिये उसने दया से दूसरा विवाह किया था। हालांकि शुचि को उसके सारे अधिकार दया के संघर्ष से मिलते रहे।
मोहन की हालत उस श्वान जैसी थी जो आधी रोटी को छोड़ पूरी को पाने के लिये अपनी शक्ति लगा रहा था पर भाग्य की विडंबना कि उसे वह आधा टुकड़ा भी नसीब न हुआ। पूरा भाग तो उसके भाग्य में था ही नहीं। मन की बढती कटुता के कारण वह न तो सौम्या का सानिध्य पा पाया और न ही दया के शरीर से अपने मन की प्यास बुझा पाया। दो बृहत सरोवरों के स्वामी के नाम से मित्रों में परिहास का पात्र मोहन वास्तव में प्यासा था। फिर प्यास बुझाने के लिये वह भी जुगनू की ही भांति मदिरा का शौकीन बन गया।
तड़प बढती गयी। उसी अनुपात में शराब का सेवन बढता गया। इतना अधिक कि वह शराब मोहन के आमाशय का ही सेवन कर गयी।
न तो कैलाश आत्मनिर्भर बन पाया, न शुचि जीवन के पाठ सीख पायी। उससे पूर्व ही सौम्या और दया दोनों विधवा हो गयीं। समाज के नजरिये से बच्चों के सर से पिता का साया उठ गया। जीवन की कठिनतम परीक्षा की घड़ी सामने आ गयी। यह वह अवसर था जबकि परिवार के सदस्यों के मन के पर्दे हटते।सभी एक दूसरे को सहारा देते। एक दूसरे की ताकत बन जाते। पर वास्तव हुआ बिलकुल विपरीत। परिवार के विघटन की जो कहानी बहुत नजदीकियों को ज्ञात थी, वह कहानी हर गली और मुहल्ले में सुनाई जाने लगी। जब कोई श्रोता उसी कथा का वक्ता बनता तब वह उस कथा में खुद का अंश अवश्य जोड़ता। परिवार की इन परिस्थितियों के लिये उत्तरदायी गलतियों की समीक्षा हो रही थी। और घूम फिरकर सारी गलती मात्र दोनों बहनों सौम्या और दया के हिस्से आ रही थीं। शेष कितनों की गलती इन परिस्थितियों का आधार थी, यह बात गौढ रह गयी।
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’