पंचायत के फैसले से केवल दया ही दुखी नहीं थी, अपितु इस फैसले को सुन सौम्या भी बहुत ज्यादा व्यथित हो गयी। वह समझ नहीं पा रही थी कि इस तरह कुछ लोग कैसे कोई फैसला सुना सकते हैं जिससे किसी के जीवन की दिशा ही बदल जाये। पंचायत मात्र दया के अधिकार और उसके दुख दूर करने के लिये बैठी थी। पर किसी पंचायत को क्या अधिकार है कि वह सौम्या के जीवन में हस्तक्षेप करे। वैसे भी वह पति के स्नेह की प्यासी थी। कोई उम्मीद भी नहीं थी कि पति का स्नेह उसे जीवन में कभी मिलेगा। फिर भी सामाजिक रूप से वही तो मोहन की अर्धांगिनी थी। दया के दुख दूर करना उद्देश्य था या जुगनू के हिस्से की संपत्ति बचाना, पर किसी भी उद्देश्य की पूर्ति हेतु वह अपने पति को अपनी चचेरी बहन के साथ क्यों बांटे। पहले किस तरह से परिपाटी चली कि एक भाई की मृत्यु के बाद दूसरा जीवित भाई, उसकी विधवा से दूसरा विवाह कर लेता था। पर आज ऐसी परिपाटी को कैसे स्वीकार किया जा सकता है।
  सौम्या को भले ही अपने पति से शिकायत थी फिर भी वह समझती थी कि मोहन इस निर्णय का विरोध करेगा। उसे क्या पता कि इस फैसले के बाद मोहन के मन में किस तरह के लड्डू फूट रहे हैं। बेचारी मोहन के मन में छिपे असुर से अनजान थी। वह जानती न थी कि मोहन पहले भी दया के साथ रिश्ते की सीमा को लांघ चुका है। अभी भी सौम्या को मोहन से उम्मीद थी कि वह इस अनुचित का विरोध करेगा। खुद की ऊंची मानसिकता प्रदर्शित करेगा। पर ऐसा नहीं हुआ। मोहन दया से दूसरे विवाह के लिये सहर्ष तैयार हो गया। 
  ” यह तो उचित नहीं। दया से पुनर्विवाह। जबकि अभी आपकी पत्नी मैं जीवित हूँ।” 
  सौम्या ने पहली बार प्रतिवाद किया। 
  ” हाॅ तो। पुरुष तो कई स्त्रियों से विवाह कर सकता है। आरंभ से करता रहा है। फिर मैं तो विशेष परिस्थिति में यह विवाह कर रहा हूँ। एक विधवा को सहारा ही देना चाहता हूँ। “
” अरे वाह। बस थोड़ी सी पुश्तैनी जमीन बचाने के लिये… ।नहीं। यह विधवा का जीवन संवारना तो नहीं। दया की भी इसमें कोई इच्छा नहीं। “
” तुम कैसे कह सकती हो कि यह विवाह दया की इच्छा से नहीं हो रहा। “
” इसलिये क्योंकि मैं दया से बचपन से परिचित हूँ। दया मेरी बहन ही नहीं, बचपन की सखी भी है। दया कभी भी कुछ ऐसा नहीं चाहेगी जो मेरे जीवन के प्रतिकूल हो। “
  मोहन के चेहरे पर कुटुल मुस्कान उभर आयी। सौम्या उसे देख जल भुन गयी।
विचारों ने कुछ पलटा खाया। कहीं मैं ही तो दया पर गलत विश्वास नहीं कर रही। यदि दया को मेरी कुछ चिंता होती तो वह जरूर इस रिश्ते के लिये मना करती। बात कुछ और है। लगता है कि जुगनू की मृत्यु के पीछे भी कोई अन्य कारण है। क्या कारण था कि जुगनू वैश्यालयों के चक्कर लगाने लगा। कुछ तो गहरी बात है।
  बात तो निश्चित गहरी थी पर सौम्या का संदेह गलत दिशा में था। निर्दोष दया संदेह की भेंट चढ रही थी। कैसी बिडंबना है कि एक स्त्री ही दूसरी स्त्री पर संदेह करती है। बचपन का विश्वास भी संदेह के समक्ष धराशायी होने लगता है। 
  भले ही मोहन का दया के साथ दूसरा विवाह था फिर भी कुछ नेगाचार निभाने होते हैं। मोहन और दया के विवाह की तैयारी हो रही थीं, वहीं सौम्या ने खाना बंद कर रखा था। किसी को उसकी चिंता न थी। पति के सर पर इश्क का भूत चढा था। ससुराल के बुजुर्ग कुछ जमीन बचाने की खुशी में मग्न थे। मायके बालों को खुशी थी कि दया फिर से अपने ससुराल जाने बाली थी। कैलाश भी पापा के फिर से दूल्हा बनने की खुशी में खुश था। 
  दूसरी तरफ दया कोशिश कर अपने आंसुओं को रोक फिर से दुल्हन बन रही थी। शुभि ने पहली बार माँ को ऐसे कपड़े पहने देखा। 
  सभी खुश थे। बस दुखी थीं सौम्या और दया। उससे भी ज्यादा दुख की बात थी कि दोनों ही अपने आगामी जीवन के दुख का कारण एक दूसरे को समझ रहीं थीं। यदि दूसरा प्रयास करता तो निश्चित ही ऐसा दिन न देखना पड़ता। मोहन के लिये एक बार दोनों बहनों के रिश्तों में कड़बाहट आयी थी। आज फिर से मोहन के कारण ही दोनों बहनों का रिश्ता बदलने जा रहा था। दोनों का प्रेम पूरी तरह मिटने बाला था। पर इसकी किसे चिंता। 
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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