” नहीं माॅ। ऐसा निर्णय क्यों। मेरे हित चाहते चाहते मेरे ही हित की अवहेलना क्यों। इसकी तुलना में तो अच्छा रहता कि पंचायत ही न बुलाई जाती। चोट लगे हुए की चोट पर मलहम लगाने के स्थान पर उस घाव को छेड़ना… । क्या चोटिल के कष्ट का अनुमान नहीं है।”
  दया अपने मन के रोष को मन में न रख पायी।
” इसमें परेशानी ही क्या है। हमारी बिरादरी में तो पहले भी ऐसा होता रहा है। “
  बेटी की तकलीफ सबसे ज्यादा माॅ समझती है। पर कभी कभी स्वार्थ की पराकाष्ठा जब होने लगती है तब माॅ भी माॅ नहीं रहती। सुरैया मानतीं थी कि इस निर्णय का दया के जीवन में कोई अच्छा प्रभाव नहीं होगा। फिर भी मानतीं थी कि स्त्री को बार बार समझोता करना चाहिये। बिना समझोते के स्त्री का क्या जीवन।
  ” पर माॅ।”
  ” अब कुछ नहीं। यह तेरे दादा का निर्णय है। सभी रिश्तेदारों का निर्णय है। फिर खुद अपनी ही क्यों सोचती हों। शुचि का भविष्य क्यों बर्बाद करना चाहती हों।”
  ” शुचि। उसका क्या हित।”
  ” किसी भी संतान का हित केवल उसके परिजन ही सोच सकते हैं। किसी अन्य से क्या आशा। “
  दया चुप रह गयी। वैसे चुप रहना नहीं चाहती थी। कहना चाहती थी कि मैं भी तो इसी परिवार की बेटी हूं। फिर यही परिवार किस तरह मेरे अहित में मेरा हित ढूंढ रहा है। माॅ भी साथ नहीं दे रही। फिर स्त्री का कोई भी अपना नहीं। न वह मायके की होती है और न ससुराल की।
   दया की आंखों से आंसू आने लगे। सुरैया ने भी उसे चुप न कराया।
  ” माॅ। इतनी नुष्ठरता क्यों। क्या मैं तुम्हारी बेटी नहीं हूँ।”
“निष्ठुर नहीं हूँ। असहाय हूँ। समाज से लड़ने में कमजोर हूँ। नहीं चाहती थी कि मेरी बेटी भी मेरी तरह असहाय रहे। इसीलिये तुम्हें पढाना चाहती थी। तुम्हें आत्मनिर्भर बनाना चाहती थी। पर ऐसा हो कब पाया। परिस्थितियों से संघर्ष करना कब आसान होता है। फिर कुछ भी सही नहीं। सही फिर क्या है। शायद अनेकों गलत में से सबसे कम गलत का चुनाव। हाॅ, केवल यही सही की परिभाषा है। आर्थिक और सामाजिक रूप से हम इतने सक्षम कहाँ हैं कि तुम्हें तुम्हारा अधिकार दिला सकें। फिर जो विधाता ने सोच रखा है, उसे स्वीकार करने के सिवाय अब हमारे पास और क्या शेष है। “
  सुरैया ने अपनी आंखों के आंसू छिपाने का प्रयास किया पर छिपा न पायी। खुद के कष्ट के साथ साथ माॅ की असहायता की वेदना दया के मानस को दग्ध करने लगी। अंत में दया ने खुद का चिंतन बंद किया और मात्र शुचि के भविष्य के लिये पंचायत के उस निर्णय को स्वीकार करने का निश्चय करने लगी जिसका कोई भी कानूनी आधार नहीं था। माॅ के दिल के आगे कानून, व्यवस्था और खुद की मानसिक पीड़ा ही बहुत पीछे छूट गयी। 
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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