समय कितनी जल्दी बदल जाता है। मनुष्य का व्यवहार भी कभी कभी इतनी शीघ्र बदलता है कि यकीन करना भी कठिन होता है कि यह वही व्यक्ति है जिसके मन में कभी स्नेह की विशाल दरिया बह रही थी। जहाँ कभी लहलराता नीर था, अब वहाँ सूखी धूल भरी हुई है जो कि वायु के जरा से प्रवाह से ही उड़कर आंखों को कष्ट पहुंचाने लगती है।
कभी दया से अतिशय प्रेम के कारण विंदु सौम्या को उसके हिस्से का प्रेम नहीं दे पायी थी, आज वही दया विंदु के लिये पूरी तरह उपेक्षित थी। वैसे जिसका युवा पुत्र काल का ग्रास बना हो, उस माॅ की व्यथा सही तरह लिखी नहीं जा सकती है। पर दुखी तो दया भी थी। दोनों एक दूसरे से अपना दुख बांट सकती थीं। पर ऐसा न हो पाया।
दया गर्भवती थी। आगामी नाती के इंतजार में जो थोड़ा बहुत उसे पूछ लिया जाता था, वह भी उस दिन बंद हो गया जबकि दया ने एक बेटी को जन्म दिया। सचमुच पुत्र की इच्छा ही ज्यादा बलबती होती है। एक कन्या की माॅ को तो उचित सम्मान भी नहीं मिलता है।
दिन और रात की उपेक्षा बढती गयी। दया मात्र काम करने की मशीन बन गयी। उस पर भी उसकी बेटी शुचि का ध्यान रखने बाला कोई न था। जहाँ सौम्या के पुत्र कैलाश के लिये दूध, दही की कमी न थी, शुचि की आवश्यकता की ही अवहेलना होती। वह तो कुछ सौम्या की उदारता थी। हालांकि बहुत ज्यादा कर पाना उसके भी वश में न था। घर पर रहकर भी वह गृहस्वामिनी तो कभी नहीं थी। उसे निर्णय लेने का अधिकार ही कब था।
आखिर दया शुचि के साथ अपने मायके चली गयी। आशा थी कि किसी तरह मायके में उसका और उसकी बेटी का जीवन कट जायेगा। वह भूल रही थी कि मायका कभी भी बेटी का घर नहीं होता।
दिन, माह और वर्ष बीतते गये। वैसे ऊपरी तौर पर कुछ भी गलत न था। फिर भी घर में वह आंतरिक अपनत्व गायब था। बेटी विधवा हो गयी। ससुराल में निर्वाह नहीं है। अभावों में भी बेटी को अपने पास रखे हुए हैं। इन बातों में बहुधा अहसान का अहसास होता। इस अपमान को सहन कर पाना भी कठिन होता। फिर भी दया सह रही थी। सहन करने के सिवाय उसके पास कोई चारा भी न था।
कालीचरण और जमुना जो कि आयु के उस भाग में पहुंच चुके थे कि उन्हें हरि सुमरण के अतिरिक्त अन्य बातों से अधिक मतलब नहीं होना चाहिये था। पर उन्हें लगता कि उनके बिना घर चल ही नहीं पायेगा। दया का मायके में रहना भी उन्हें ज्यादा पसंद न था। यह भी क्या बात हुई। बेटी एक बार विदा होकर ससुराल की हो जाती है। यही तो दुनिया की रीति है। इस रीति के खिलाफ आज तक किसे सुख मिला है।
वैसे कालीचरण को दुनिया की रीति से भी ज्यादा चिंता किसी अन्य बात की थी। उन्हें अनुमान हो रहा था कि दया के मायके में रहने से नाती के विवाह में अड़चन आ सकती है। कालीचरण जी का अनुमान कुछ सच भी हो रहा था। नाती से रिश्ते की बात करने बाले दया के बारे में जरूर पूछते।
“कुछ नहीं भाई। विवाह के बाद तो बेटी ससुराल की ही होती है। कुछ समय के लिये ही बेटी मायके में है।”
पर शायद किसी को इस बात का विश्वास न होता। कोई भी अपनी बेटी को उस घर में व्याहना न चाहता जहाँ उनकी बेटी का सामना विधवा ननद से हो।
सुरैया को दया से स्नेह था। पर उतना नहीं जितना कि बेटे सौदान से। बेटी के भविष्य के लिये बेटे का भविष्य तो चौपट नहीं किया जा सकता। एक बेटी की खुशहाली के लिये पूरे परिवार की खुशियां तो नहीं छीनी जा सकतीं। जिसका भाग्य पहले से ही फूटा हुआ है, उसका भाग्य बनाने के लिये पूरे परिवार का भाग्य तो नहीं फोड़ा जा सकता है।
फिर अभी दया का भाग्य पूरी तरह नष्ट भी तो नहीं हुआ है। अभी भी उसका भाग्य उसकी प्रतीक्षा कर रहा है। उसके हिस्से की खुशियां मिटी कब हैं। एक अंधेरे कक्ष में छिपकर बैठी हैं। छिपे हुए भाग्य को ढूंढ सामने लाना ही पुरुषार्थ है। फिर यह पुरुषार्थ करना ही होगा। केवल दया के लिये नहीं अपितु खुद के परिवार के लिये। अपने बेटे की खुशियों के लिये। दया के जीवन के लिये जो पुरुषार्थ की तैयारी थी, उस विषय में दया की राय जानने की आवश्यकता ही क्या है। जबकि जो किया जा रहा है, उसी के भले के लिये तो किया जा रहा है।
परहित की निस्वार्थ अवधारणा का आसरा लेकर कितनी ही बार खुद का स्वार्थ सिद्ध किया जाता है। कितनी ही बार परहित की पृष्ठभूमि में कोई भी परहित नहीं होता अपितु पूरी तरह खुद का हित निहित होता है। कितनी ही बार परहित की आढ में निजी हितों का सौदा भी होता है। तथा जिसके हित के लिये वह सब किया जाता है, उसे आखरी क्षणों तक यथार्थ का पता ही नहीं होता।
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’