विश्वास वह गहन तत्व है जो कि पाषाण को भी ईश्वर बना देता है। विश्वास पोखर के जल को भी गंगाजल बना देता है। विश्वास किसी भी मनुष्य को ईश्वर के समकक्ष बना देता है। विभिन्न प्राकृतिक तत्वों को देव बना देता है। फिर जब वही विश्वास टूटता है तब बहुधा ईश्वर का अस्तित्व भी संदेह के घेरे में आ जाता है।एक विश्वास पर चोट कितने ही विश्वासों को धराशायी कर देती है। 
   दया को खुद पर विश्वास था कि वह जुगनू को एक जिम्मेदार आदमी बना देगी। उसे विश्वास था कि उसके प्रयासों से जुगनू किसी पर आश्रित नहीं रहेगा। विश्वास था कि जुगनू के विषय में व्याप्त पूर्व धारणा समाप्त हो जायेगी।
  दया को खुद पर विश्वास के अतिरिक्त जेठ मोहन पर भी विश्वास था। तभी तो वह एक अकेली स्त्री शहर में रहने आ गयी। पर जब मोहन ने दया के एक विश्वास को तार तार कर दिया, फिर दया को न तो खुद पर विश्वास रहा और न ही पुरुष जाति पर। सचमुच यह पुरुष जाति कभी भी विश्वास के योग्य नहीं है। इनकी कथनी हमेशा करनी से अलग होती है। इनका मन पूरी तरह कलुषित होता है। ये केवल मौके को तलाशते रहते हैं। जब इनके हाथ किसी को सहारा देने के लिये उठते हैं, उस समय भी इनका उद्देश्य केवल अपने मन में समायी कलुषित इच्छाओं की पूर्ति ही होता है। एक गिरे हुए को उठाना कभी आसान नहीं होता है। शूकर भरपूर व्यंजनों की थाली को त्याग गंदगी के ढेर में से ही अपना भोजन तलाशता है। स्वभाव कभी भी मिटता नहीं। फिर पुरुषों पर विश्वास का कोई भी आधार नहीं है। 
  कितनी अद्भुत बात है कि मनुष्य किसी एक की बुराई को पूरे समाज से जोड़ लेते हैं। किसी एक की गलती पूरे परिवार की गलती बन जाती है। पूरी कौम ही घृणा की पात्र बन जाती है। जबकि सत्य है कि किसी एक के आचरण से पूरे समाज का आचरण नहीं मापा जा सकता है। फिर भी यह मनुष्य का स्वभाव है कि किसी एक की गलती का दोषी पूरे समाज को मानता है। 
  दया ने मोहन से बात करना बंद कर दिया। जुगनू के न होने पर वह कमरे का दरबाजा बंद रखने लगी। किसी भी स्थिति में वह कमरे से बाहर न निकलती। यह उचित था। पर उसका जुगनू की भी अवहेलना, जुगनू से भी इठा रहना, उससे बात बात पर झगड़ा करना, एकांत के क्षणों में भी जुगनू को अपने समीप न आने देना, यह तो उचित नहीं था। 
  कुछ ही दिनों में दया को खुद में कुछ परिवर्तन महसूस हुआ। उसके गर्भ में उसका अंश आ चुका था। मात्रत्व का अहसास भी उसके मन की व्यथा को दूर नहीं कर पा रहा था। अलबत्ता उसे गाँव जाने का मौका मिल गया। जुगनू को अपने हाल पर छोड़ दया ससुराल आ गयी। 
  शहर में जुगनू पर अब कोई रोकटोक न थी। दया के कुछ दिनों के व्यवहार ने उसके मन को दया से बहुत दूर कर दिया। पहले उसके अर्थोपार्जन का उद्देश्य दया को खुश रखना था। पर अब उसके किसी भी उद्देश्य में दया न थी। जीवन मात्र खुशियां मनाने का जरिया है। उसके मानस में खुशियों की जो जो परिभाषा थीं, उन सभी तरीकों से वह अपनी कमाई को खुद की खुशियों पर खर्च करने लगा। शराब और शबाब दोनों उसके जीवन का हिस्सा बन गये। स्थिति यह आ गयी कि उसकी मजदूरी उसके शौकों को पूरा नहीं कर पा रही। एक बुराई कितनी ही बुराइयों को आमंत्रित करती है। जुगनू कभी कभी मौका देख चोरी भी कर लेता। जो उसकी उधारी चुकाने के लिये जरूरी भी था। 
  समय बड़े से बड़े घावों को भर देता है। कुछ दिनों में दया अपने जीवन के बुरे अध्याय को भूलने लगी। हालांकि उसे अभी भी पुरुष जाति पर विश्वास न था। पर स्त्रियों के दुख को समझना वह सीख गयी। इस समय उसके और सौम्या के मध्य वही पुराना स्नेह था। हालांकि इतने बीच में जुगनू नीचता की राह में इतना आगे बढ गया कि उसे फिर से सुमार्ग पर ला पाना किसी मनुष्य के लिये तो कभी भी आसान न होगा। 
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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