एक प्राइवेट फैक्ट्री में जुगनू को काम मिल गया। ड्यूटी की शिफ्ट लगती थी। किसी सप्ताह दिन की ड्यूटी तो किसी सप्ताह रात की ड्यूटी। अब जुगनू भी दया के लिये उपहार खरीदने की स्थिति में था। हालांकि उसकी आय मोहन की आय के सामने बहुत कम थी। फिर भी जुगनू के ऊपर से नाकारा का ठप्पा हट गया।
फैक्ट्री में काम करने बाले ज्यादातर मजदूर देशी शराब के शौकीन थे। जुगनू भी पुराना शराबी। खुद जैसे लोगों की संगति उसे मिली तो शराब का पान पहले से भी ज्यादा बढ गया।
शहर में एक कमरा लेकर दोनों भाई रहते थे। जुगनू की कमाई या तो दया के लिये तोहफे खरीदने में जाती। या शराब की भेंट चढती। घर के खर्च के लिये पैसा देने की उसकी हालत न थी। उसकी जेब हमेशा खाली रहती।
दया की छठी इंद्रियां संकेत दे रही थीं कि कुछ गलत हो रहा है। जुगनू पर नकेल जरूरी लग रही थी।यदि समय रहते न चेता गया तो अनर्थ हो सकता है। सौम्या की बतायी बातों पर पूरा विश्वास न था। पर यदि वे बातें सही हुईं तो आदमी सारी कमाई व्यसनों पर ही उड़ाता रहेगा। पर गांव में रहते हुए जुगनू की निगरानी करना संभव न था। आखिर उसने जुगनू के साथ शहर जाकर रहने का फैसला ले लिया। जिसे स्वीकार करने का कोई आधार न था। घर बालों की नजर में औरतों का शहर में क्या काम। पर दया अपनी बात बहुत तरीकों से समझाना जानती थी। चाहे गांव हो या शहर, बिना औरत घर कब घर होता है।
वैसे विंदु का रवैया दया के लिये सौम्या की तुलना में अधिक उदार था। फिर भी दया की यह मांग स्वीकार हो पायी तो बस मोहन के कारण। यदि दया शहर में रहना चाहती है तो इसमें समस्या की बात क्या है। शहर में खाना बनाने और घर के काम की दिक्कत रहती ही है। दिन भर नौकरी करो और फिर घर आकर खुद खाना बनाओ। एक औरत साथ रहेगी तो परेशानी तो नहीं होगी।
वैसे मोहन इतने समय से शहर में रह रहा था। आज तक कभी उसे विचार नहीं आया कि कुछ दिनों के लिये ही सही, उसे सौम्या को शहर घुमाने के लिये ले जाना चाहिये। गांव में तो वह दिन और रात काम में ही लगी रहती है। कभी उसका मन भी करता होगा कि वह भी अपने आदमी के साथ शहर में घूमे। कभी अपने आदमी के साथ शहर के सिनेमाघर में कोई सिनेमा देखे। कभी अपने पति के साथ एकांत का सुख प्राप्त करे।
“तुझे कुछ अकल बकल है या नहीं। शहर में रहने को जगह ही कितनी है। बहू के लिये कुछ अलग जगह तो होनी चाहिये।” विंदु ने कड़ा प्रतिवाद कर दिया।
“कौन से जमाने में रह रही हो अम्मा। आजकल तो बहू और जेठ बिलकुल भाई बहन की तरह रह लेते हैं। फिर दया तो मेरी साली है। उसे कोई तकलीफ नहीं होगी। कमरे के साथ साथ एक बरामदा भी है। मुझे बेमतलब कमरे में घुसने की जरूरत ही क्या है। मेरा बिस्तर तो बरामदे में लग जायेगा। “
मोहन की बात सुन विंदु निरुत्तर हो गयी। दया भी मन ही मन मोहन की महानता के गुण गा रही थी। विंदु और दया दोनों ही समझ नहीं पा रहे थे कि मोहन के मन में कोई पाप है। पाप की आहट बस सौम्या को सुनाई दे रही थी। हमेशा औरत को अपने पैरों की जूती समझने बाला पुरुष इतना उदार कैसे। उसके विचारों में समूल परिवर्तन कैसे।
सौम्या दया के शहर जाने का विरोध करना चाहती थी। पर कर नहीं पायी। जब सास भी दया के साथ थी तब उसके कुछ बोलने का अर्थ कुछ भी न था।
सशंकित मन बार बार बातों को घुमाता है। बार बार यथार्थ को देखकर भी अनदेखा करता है। अरे। इसमें क्या बात है। देखती नहीं कि मेरा पति कितना बदल चुका है। अब मेरी जरूरतों का भी ध्यान रखता है। इतने समय जो मेरी बेरुखी की है, इसलिये यकायक हिम्मत नहीं होती। विचार तो शायद मुझे भी शहर ले जाने का था। पर कह नहीं पाये । अगर दया शहर जाकर रहने लगेगी तो मेरी राह भी खुल जायेगी। संभव है कि कभी मैं शहर चली जाऊं और दया यहाँ गांव में रहने आ जाये। इसी तरह बदलाव होता है। धीरे धीरे ही परिवर्तन की बहार आती है। फिर भी यह वैचेनी क्यों। खुद परिवर्तन की राह देख रही मैं परिवर्तन को क्यों नहीं स्वीकार कर पा रही। सचमुच मन बैचेन है। निरर्थक बातों में सार्थक को देख नहीं पा रहा। मन अविश्वास कर रहा है। पर क्यों?
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’