जब जीवन में कुछ सुखद होने लगता है, उस समय भी विपत्ति का मारा मनुष्य घबराता है। कभी कभी तो ऐसे सुखद क्षणों में भी विपत्ति तलाशने लगता है। कभी कभी वह शांति को एक नवीन तूफान के आगमन का सूचक समझने लगता है। चित्त में उठती बैचेनी के कारण को तलाशता है। पर जब उसे ऐसा कोई कारण नहीं मिलता तो मान लेता है कि शायद उसके बुरे दिन बीत चुके हैं।
वैसे किसी के भी जीवन के सुख और दुख केवल उसी के कर्मफलों का परिणाम होते हैं। पर न जाने कहाँ से किसी अन्य को श्रेय देने की धारणा व्याप्त हो गयी। घर में किसी वधू के आगमन के बाद ही परिवार में कुछ अप्रिय होने का दोष उस नवविवाहिता को मिलता है। तो कुछ सुखद होने का श्रेय भी उसी के चरणों को दिया जाता है।
जब से दया घर में बहू बनकर आयी थी, मोहन बहुत बदल गया था। पहले सौम्या की आवश्यकता का भी उसे ध्यान न रहता। अब बिना कहे दोनों स्त्रियों का ध्यान रखता। घर का बड़ा और एकमात्र कमाऊ पुत्र होने के कारण उसकी जिम्मेदारी भी अधिक थी। सौम्या अपने भाग्य पर खुश थी। इसे दया के चरणों का प्रभाव मान दया से अधिक स्नेह कर रही थी।
दया के कारण ही सौम्या को पत्नी का अधिकार मिल रहा था। सौम्या के मन में दया के लिये प्रेम होना स्वाभाविक ही था। अपने पति की कुवासना से अनजान सौम्या अब समझ रही थी कि दया के आगमन के साथ ही उसके जीवन के दुख भरे क्षण मिट गये। अबोध समझ नहीं रही थी कि यही तो असली दुखों के आगमन का समय है।
रविवार को मोहन घर आया तो सौम्या और दया के लिये चूड़ियों के दो सेट ले आया। रंग बिरंगी चूड़ियां बहुत ज्यादा महंगी न थीं फिर भी बहुत सुंदर थीं। वैसे भी चूड़ियां स्त्रियों के श्रंगार का प्रमुख भाग हैं। दोनों के चेहरे खिल गये।
रात का समय। जुगनू अपनी प्रिया के सामीप्य की चाहत में था और दया उसे तड़पा रही थी। ऐसे मान विनोद भी प्रेम की परिभाषा में रखे जाते हैं। वैसे तो स्त्री की क्षमता अपार है। फिर भी कहा जाता है कि अंतरंग क्षणों में एक स्त्री की शक्ति अपार हो जाती है। जैसे कि घटोत्कच परम वीर था फिर भी अजेय तो नहीं था। पर महाभारत के रात्रियुद्ध के अवसर पर कौरव पक्ष के महाबली योद्धा भी उससे पार नहीं पा सके थे। वही स्थिति कुछ स्त्रियों की कही जाती है।
जुगनू दया के जितना समीप जाने का प्रयास करता, दया उतनी ही बेरुखी प्रगट करती। आखिर में दूसरी तरफ मुंह फेर लेट गयी।
” आखिर इतना क्रोध किस लिये प्रिये।”
“इसीलिये क्योंकि आपका प्रेम बिलकुल झूठा है। इसमें कुछ भी सत्य नहीं। सब कुछ वनावटी सा।”
“नहीं। मेरे प्रेम में कोई वनावट नहीं। ऐसा ख्याल भी कैसे आया।”
“कैसे वनावट न समझूं। मेरे वस्त्रों, आभूषणों के ढेर में एक छोटा सा भी आप द्वारा दिया उपहार नहीं।”
” अरे इतनी सी बात। कल ही तुम्हारे लिये कुछ अच्छा सा लाता हूँ। “
” पर कहाॅ से लाओंगे। बाबूजी से पैसे मांगकर। बाबूजी द्वारा दिया सब कुछ है मेरे पास। “
जुगनू निरुत्तर हो गया। वैसे भी उसकी क्या आय।
दया ने जुगनू की तरफ मुंह किया। फिर खुद ही उसके आलिंगन में बंध गयी। बड़े भाई द्वारा लायी चूड़ियां दया की कलाई में थीं। इस समय वे सुंदर चूड़ियां जुगनू को चिढाने लगीं। अरे सामर्थ्यहीन। क्या इतनी भी सामर्थ्य नहीं कि अपनी पत्नी को जिससे असीम प्रेम के दावे तू कर रहा है, एक चूड़ियों का सेट भी भेंट कर सके।
जुगनू शांत रहा। दया की कलाइयों की चूड़ियों को देखता रहा। दया बोलती रही।
” एक स्त्री के लिये उसके पति की आय ही उसका बहुमूल्य उपहार है। उसी के बल पर तो वह संसार के सामने तनकर खड़ी होती है। यदि पति कुछ न कमाकर लाये तब सब कुछ होने के बाद भी स्त्री खुद को अकिंचन ही महसूस करती है। खुद को वह भिक्षुक मानती है जो कि दूसरों की कृपा पर जीवित है। केवल पति की आय ही तो वह है जिसपर एक स्त्री खुद की आय मान गुरूर कर सकती है। “
सूरज निकलते ही एक बड़ा परिवर्तन हुआ। जुगनू भी बड़े भाई के साथ शहर जाने को तैयार हो गया। वह भी शहर में कुछ काम करेगा। अब वह भी जिम्मेदार बनेगा। अपनी पत्नी के लिये खुद उसकी जरूरतें पूरी करेगा। वह अपनी पत्नी की आंखों में वियोग की पीर देख रहा था, असीम प्रेम पढ रहा था । पर इनके अतिरिक्त भी दया के मन किसी अन्य बात से आनंदित था। वह थी पहली विजय की खुशी। अपने जीवन की एकमात्र कमी जिसके प्रयत्नों से दूर होने जा रही हो, उसके प्रसन्न होने के इस कारण से भी बढ़कर था कि वह सौम्या की बातों को पूरी तरह गलत करने जा रही थी। इसे एक स्त्री का प्रेम कहें, जुनून कहें, संकल्प कहें अथवा वैर, इसका सही सही निर्धारण कब आसान है।
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’