जल का क्या आकार। आकार रहित हर पात्र में समाने बाला कितने ही आकार रख लेता है।  यही निराकार और साकार के मध्य का संबंध है। निराकार कितने ही तरह के आकार रख लेता है। तथा कितने ही आकार को रखने बाला निराकार भी है।
   बच्चे बहुत जल्द नवीन माहौल में ढल जाते हैं। फिर लगता ही नहीं कि नवीन परिस्थिति में उन्हें कोई दिक्कत भी है। लगता है कि मानों हमेशा से ही वह ऐसे रहते आये हों।
  उस दिन कैलाश घबराया सा माॅ की गोद में सिमट रहा था। कुछ ही दिन निकले कि कालीचरण का वह छोटा सा घर कैलाश की किलकारियों से गूंज रहा था। कालीचरण को देखते ही उनकी मूंछ खींचने दोड़ता। माॅ फटकार लगाती तो नानियों के पीछे छिप जाता। मामा को तो दिन भर घोड़ा बना उसकी पीठ पर सवारी करता। शाम होते ही मामा के साथ ग्राम भ्रमण के लिये निकलता। बच्चों का नेता बन कितने ही तरह के खेल रचाता।
  अब कालीचरण के पास कोई भैंस नहीं थी। दया भी पोखर पर नहीं जाती थी। दोनों बहनों की क्रीड़ा स्थली भी शायद दोनों की याद में सूख रही थी। गर्मी का प्रकोप, पोखर पहले से कुछ छोटी लग रही थी।
  बहुत दिनों बाद सौम्या की जिद के कारण दया, सौम्या के साथ इस पोखर पर आयी। आते ही उसे कई साल पहले की घटनाएं याद आ गयीं। किस तरह वह सौम्या के बेहतर भविष्य के लिये भगवान भोलेनाथ से प्रार्थना कर रही थी। शायद इन यादों की पुनरावृत्ति से बचने के लिये वह पोखर पर नहीं आती थी। पर आज इन यादों में कोई परेशानी न थी।
  परेशान थी सौम्या। मन के सैलाब बाहर निकलने को बेताब थे। जिन्हें रोकने में खुद को असमर्थ अनुभव कर रही थी। धीरे-धीरे आंखों से आंसुओं की बूंदें गिरने लगीं। जैसे एक मूसलाधार बारिश के आरंभ हलकी बूंदाबांदी से होता है। उसी तरह आंसुओं की वह धार बढने लगी।
   दया परेशान। अचानक जीजी को क्या हुआ। आनंद की सैज पर शयन करने बाली बहन का यह रुदन क्यों। रोते तो वही हैं जो कि कांटों के बिछोने पर लेटकर रात गुजारते हैं। शायद वह भी कांटों के अभ्यस्त हो जाते हैं। फिर उन्हें भी दर्द नहीं होता। पर धनियों के जीवन में किस तरह का दर्द।
  ” यह क्या हुआ जीजी। ऐसे आनंद के क्षणों में कौन सा दुख।” 
  दया को सौम्या के दर्द का अनुमान न था। पर अपनी बुद्धि से अनुमान करने से कौन किसे रोक सकता है।  दर्द होता है। दूसरे को भी सुखी होते देखने का दर्द। जिस सुख पर मनुष्य खुद का विशेषाधिकार समझता है, उस सुख में किसी अन्य को हिस्सेदार देख मन तड़पता ही है। आजतक सौम्या जिस सुख के बदौलत इठलाती फिरती थी, जब वही सुख मेरे भविष्य में आने बाला है, तो मन में उठी तड़प मन में छिपा भी न पायी।
  दया को सौम्या से घृणा होने लगी।
   सौम्या ने कोई उत्तर न दिया। दया ने दुबारा पूछना उचित न समझा। सौम्या को छोड़ वह पोखर के उस किनारे पहुंच गयी जहाँ कभी उसने भगवान भोलेनाथ का इसी पोखर के जल से जलाभिषेक किया था।
  एक तो मन का दर्द और उसपर दया की अवहेलना, सौम्या का मन जलने लगा। सच है कि इस  संसार में कोई भी किसी का नहीं है। क्या ये आंसू मात्र मेरे दर्द के हैं। इनमें बहुत ज्यादा नहीं तो कुछ तो दया के आगामी जीवन के दर्द के भी हैं।
  सौम्या दया के पीछे पीछे पहुंची।
  “तुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरे रोने के बाद भी इस तरह मेरी अवहेलना।” सौम्या ने ताना दिया जिसे दया सहन नहीं कर पायी।
  “मैंने पूछा तो था। पर आपने बताया कब ।अब यह तो नहीं हो सकता कि मैं आपके पैर पकड़कर पूछूं।”
  सौम्या ने लंबी सांस ली। अब क्या बताना शेष रहा। फिर भी मन कड़ा कर उसने वह कह दिया जो कहने आयी थी। दया भी एक बार विचलित हुई। पर फिर मन को कड़ा कर लिया। पता नहीं क्यों आज उसे सौम्या की किसी भी बात पर यकीन न था।
” क्या तुझे मेरी बात पर विश्वास नहीं है। “
  “है क्यों नहीं। पर यह जीवन ही संघर्ष है। संघर्ष की भट्टी में सभी को तपना होता है।” दया ने अपना ज्ञान बखान दिया। सौम्या बिलखा कर रह गयी।
  ” अच्छा। फिर ठीक है ।सोच रही थी कि तेरा अहित न हो। पर जब तुझे ही कोई चिंता नहीं तो मैं क्या कर सकती हूँ। “
  दया बार बार सौम्या की निश्छलता या चतुरता का विश्लेषण कर रही थी। मन के कुभाव कि ज्यादतर तो यह सौम्या का षडयंत्र लगा। फिर भी मन का एक कौना व्यथित होने लगा। यदि सौम्या की बातों में जरा भी सच्चाई है तो यह भी क्या जीवन। इससे बढिया तो कष्टों में खुलकर रोना ही है। कम से कम मन का क्षोभ तो बाहर आ ही जाता है।
  “अच्छा जीजी। आपकी सारी बातें सहीं।पर एक सत्य यह भी है कि मैं कर भी क्या सकती हूँ। क्या खुद की खुशी के लिये घर में सभी की खुशियों पर गृहण लगा दूँ। सही बात है कि दूर से बहुत कम दिखता है। मैं लगातार देख रही हूँ। मेरी सामर्थ्य नहीं है कि मैं दादा को मना कर सकूं। अब जो होगा सो देखा जायेगा। जीवन में यदि सुख लिखा है तो वह जरूर मिलेगा। यदि जीवन में ठोकर खाना ही बदा है तो कोई नहीं बचा सकता। “
  दया की बात यथार्थ के नजदीक थी। आखिर सौम्या अपनी तकलीफ परिवार में किसी को क्यों नहीं बता पायी। बस इसीलिये तो कि सब दुखी न हों। सभी के दुखी होने से उसका खुद दुखी होना बेहतर है।
दोनों बहनें चुपचाप घर वापस चलने लगीं। बहुत देर तक दोनों में कोई बात नहीं हुई। गांव पास आ गया। 
  “एक बात बोलूं जीजी।” 
  ” हाॅ।” 
  “जो घर को अपने हिसाब से न चला सके, वह स्त्री ही नहीं। खुशियों में भी जिसके हिस्से दुख ही आये, वह कैसी स्त्री। जो दूसरों के मन को पढ अपने मन की न करबा सके, वह कैसी स्त्री। ना। फिर तो दुखों का कारण उस स्त्री की असमर्थता ही है। “
” तुम जो समझो। मैंने तो बस आगाह किया था। “
  गांव आ गया। दोनों अपने मुख पर झूठी मुस्कराहट के साथ अपने घर की तरफ चल दीं। 
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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