सौम्या का विवाह मोहन के साथ हो गया। एक सुखी भविष्य की आशा से सौम्या ससुराल को विदा हो गयी। वह खुद इस बात से अनजान थी कि असली सुख तो आंतरिक होता है। वाह्य चकाचौंध में मिला सुख भला कब सुख होता है।
   विंदु की तो पहली पसंद ही दया थी। मोहन ने भी जब विवाह के अवसर पर दया को देखा तो वह भी उसी पर मुग्ध हो गया। परिणाम मोहन के मन में सौम्या के लिये प्रेम न उपजा। काम करने की अधिक क्षमता के कारण दया पर बरीयता सिद्ध करने बाली सौम्या को उसकी सास ने पूरी तरह काम में ही लगा दिया। पहले गांव की एक गरीब महिला झाड़ू लगाने आती थी। अब बहू के आगमन के बाद उसे भी हटा दिया गया। ससुराल का बड़ा घर। ज्यादा भैंस। हर रोज दसियों रिश्तेदार आते रहते। सौम्या सूरज निकलने से पहले जगती। फिर आधी रात तक उसे फुर्सत न मिलती। बेबजह के कामों की एक लंबी श्रखंला थी जिन्हें सौम्या को करने को लगभग बाध्य किया जाता था।
   वैसे सौम्या को काम करने का अभ्यास था। फिर भी उसका मन खिन्न था। पति की बेरुखी स्पष्ट थी। दिन भर काम के बाद वह आशा करती कि उसका पति उससे प्रेम के दो बोल बोलेगा, उसके हालचाल पूछेगा। पर ऐसा कुछ न होता। अपितु ज्यादातर तो मोहन उससे बात किये बिना ही सो जाता।
   कहा जाता है कि पुरुष और स्त्री का शरीर एक दूसरे के मन के लिये एक चिंगारी के समान होता है। एक दूसरे से नजदीकी दोनों के मन में कुछ आग पैदा करती है। अक्सर ऐसी आग को प्रेम मान लिया जाता है। तथा ऐसे क्षणों के परिणाम को प्रेम की निशानी।
   सौम्या गर्भवती हो गयी। कोई नहीं जानता था कि पति से शारीरिक संपर्क के बाद भी वह पति के प्रेम की प्यासी ही है। नजदीक बहती दरिया के होने पर भी अभी तक जलपान नहीं कर पायी है। उसके जिन भीगे वस्त्रों को उसकी और नदी की नजदीकी समझा जा रहा है, वास्तव में वह नदी में उठी एक लहर का परिणाम था जो कि कब का शांत हो चुकी है।
   समय का प्रभाव कि विंदु का मन भी कुछ बदला। उसके मन में भी सौम्या के लिये स्नेह की छोटी सी धारा फूटने लगी। मन के कुभाव कुछ तो मिटे। सौम्या की सेवा ने अपनी सास का मन जीता।अथवा संभव है कि सौम्या के पुत्र होने से उसके हालत कुछ बदले हों। अभी भी पुत्रवती महिला को अधिक सम्मान मिलता है। शायद परिवार में मात्र सम्मान की लालसा रखने बाली सौम्या के लिये सम्मान की पृष्ठभूमि उसके पुत्र कैलाश ने ही तैयार की हो। 
   भले ही विंदु बहू को खुद की बेटी नहीं मान पायी पर वह भी मानने लगी कि बहू भी किसी की तो बेटी है। सास द्वारा उसे कपड़े गहने दिये जाने लगे। इसका अर्थ यह नहीं कि विंदु के मन से दया निकल गयी थी। अपितु सही बात तो यह थी कि वह अपनी पहली पसंद को अपनी बहू बनाने का मार्ग तलाश रही थी।
   सैरावत का छोटा लड़का जुगनू, मोहन से दो साल छोटा, एकदम आवारा, दिन भर ताश खेलते रहता, किसी भी काम में उसका जी नहीं लगता, वैसे तो सुना जाता कि उसे शराब और शबाब की भी लत है। पर ऐसी सुनी सुनायी बातों पर न तो सैरावत को और न ही विंदु को विश्वास था। छोटा लड़का अक्सर अधिक प्रेम पाता है। अधिक प्रेम में अपनी जिम्मेदारी से उदासीन रहता है। उसके दोष भी माता पिता को नहीं दिखते ।
   सैरावत जुगनू के लिये लड़की तलाश रहे थे और विंदु का व्यवहार सौम्या के लिये उदार हो गया। दोनों घटनाएं एक दूसरे की पूरक लगती हैं। वास्तव में वह उदारता विंदु के मन में दया के लिये उपजा प्रेम ही थी। दया के कारण उपजी निष्ठुरता दया के कारण ही गहन प्रेम में बदल गयी। यदि मनुष्य अपने कुकर्मों के लिये ईश्वर से क्षमा मांग ले तभी उसकी इच्छा पूर्ण होती है। विंदु दया को पुत्रवधू बनाने की लालसा पूरी न हो पाने के कारण सौम्या पर किये अत्याचारों की मांफी अक्सर ईश्वर से  मांगने लगी ताकि दया को पुत्रवधू बनाने की उसकी लालसा जुगनू के माध्यम से पूरी हो सके। वह जानती न थी कि जिस तरह उसके मन में दया के लिये लालसा थी, उसके बड़े बेटे का मन भी उसी तरह दया के लिये स्नेह का अनुभव करता है। उस अज्ञात स्नेह के कारण वह अभी तक अपनी ब्याहता पत्नी से इठा रहता आया है।
   जितना विंदु चाहती थी कि जुगनू की पत्नी दया बने, सैरावत उतना ही कालीचरण के परिवार से रिश्ते से दूरी बनाना चाहते थे। कारण कालीचरण के घर के नवीन हालात। जिनके विषय आगे विस्तार से बताया जायेगा। कभी पैसे के बल पर बिरादरी में सबसे बेहतर समझे जाते लड़के को अपनी बड़ी नातिन ब्याहने बाले कालीचरण अनेकों विपत्तियों में घिरे पाई पाई के मोहताज थे। एक दो साल में दया की शादी करने का उनका स्वप्न भी स्वप्न बन गया। सैरावत को  उम्मीद थी कि जुगनू की शादी में भी लड़की बाले उसी तरह दहेज देंगें जैसे कि मोहन की शादी में मिला था। वह उम्मीद कालीचरण से पूरी होने की कोई संभावना न थी।
  ख्वाब देखने में बहुत अच्छे लगते हैं। पर यथार्थ में बहुत से ख्बाब कभी पूरे नहीं होते। हालत ऐसी बन गयी कि जुगनू के लिये बहुत अच्छे रिश्ते ही नहीं आये। एक नाकारा लड़के को भला कौन अपनी लड़की ब्याहता। मोहन और सौम्या के विवाह को पूरे छह साल बीत चुके थे। सौम्या का पुत्र कैलाश भी दो साल से ऊपर का हो चुका था। दया बाईस साल की यथार्थ में विवाह लायक हो चुकी थी। सैरावत को भी लगने लगा कि जुगनू का विवाह बहुत आसान नहीं है। अच्छी बात थी कि अभी तक दया का विवाह नहीं हुआ था। फिर कुछ न से कुछ होना बेहतर है। वैसे भी दया उनकी पत्नी को बहुत पसंद थी। आखिर सोच समझकर उन्होंने कालीचरण को संदेश भेज दिया। कालीचरण की हालत तो उस अंधे जैसी थी जिसके हाथ में बटेर लग गयी हो। जुगनू के दुर्वयसनों से या तो वह परिचित न थे या वह भी इतना थक चुके थे कि इस विषय पर उन्होंने विचार करना उचित न समझा। 
  सौम्या जो छह सालों से परिवार का हिस्सा थी, परिवार के भीतरी हालातों से अधिक परिचित थी। भले ही मोहन के लिये हुई प्रतिद्वंदिता में उसके और दया के मध्य दूरी हो चुकी थीं पर वे दूरियाँ इतनी भी न थीं कि उसे छोटी बहन को सचेत करने से भी रोक सके। एक बार छोटी बहन के प्रति प्रेम उसे उसका कर्तव्य याद दिला रहा था। आखिर कुछ दिनों मायके जाने के बहाने सौम्या दया को सचेत करने चल दी। हालांकि वह जानती न थी कि दया को जिस अंधकूप  में फेंका जा रहा है, उसमें गिरने से किस तरह रोका जाये। खुद के परिवार के काले पक्षों को समझाने का कोई तरीका वह नहीं जानती थी। सबसे बड़ी बात यह कि उसे कोई उम्मीद न थी कि जुगनू जीवन में कुछ काम करेगा भी, फिर ऐसे नाकारा लड़के की जीवन संगिनी बनने से अपनी बहन को बचाने का वह कोई सही सही तरीका भी नहीं जानती थी। 
क्रमशः अगले भाग में
दिवा शंकर सारस्वत ‘प्रशांत’
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