गरीबी इंसान को,
लाचार है बनाती
जो दिन ना देखें
वो सब है दिखाती…
चार दिवारी है,
उन पे ना कोई छत
ना ही कोई उम्मीद
हवा के झोंके डंक चुभाये
कुदरत की अपनी जिद…
ना होते, तन ढकने को कपड़े,
ना ही कोई बिस्तर
ओस की ठंडी चादर ओढ़े 
फुटपाथ पर है सोते…
कहीं है लूट मचाते
कहीं चोरी है करते
एक निवाले की खातिर
चारों ओर है भटकते…
अपनी मन की इच्छाओं को,
आसुओ में है छुपाते
पड़े ना , रहना भूखा कल
इस चिंता से डर जाते…
गरीबी इंसान को,
लाचार है बनाती
जो दिन ना देखें
वो सब है दिखाती…
मंजू रात्रे ( कर्नाटक )
Spread the love

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *