हर शब के हिस्से  सहर  नहीं  होता
घुट जाता दम जो शजर नहीं  होता 
पाक दिल  की  दुआ कबूल होती  है
कातिलों की दुआ में असर नहीं होता
बेचकर  वो  ईमान  रईस  हो  गया  है
अब अपनों में उसका बसर नहीं होता
दीवारों  दरख़्त  को  सब घर  कह रहे
लगता  है  गांव जैसा शहर नहीं  होता
नजर  लग  जाती  है  जमाने  की   उसे
जिसके हिस्से प्यार भरा पहर नहीं होता
दुश्मन  यूं  ही  नहीं   जीत   पाता   उसे
अगर अपनों के हाथ खंजर नहीं होता
युद्ध  होता  कभी  कलम का कलम  से
तब तो ऐसा  भयावह मंजर  नहीं  होता
स्वरचित : पिंकी मिश्रा
भागलपुर बिहार ।
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