ना जाने किस दिशा में जा रहे हैं,
एक उम्मिदें दासतां संजोये हुए…
ये कैसी करवट बदल रहा है जिंदगी,
सपनों को पिरोये जा रहे हैं…
उल्फ़त अंगारों की प्यासी है,
नम होते पिघल रही…
दिल किसकी राहें देख रही,
जो होने से भी घिसक रही…
रुआं-रुआं कभी काँप रही,
तन में आहट की चुभन…
डूबते ही मन जा रहा,
क्रुंदन की अनंत सागर में…
आज व्याकुलता की सीमा लांघ रही,
नक्काशों की जींवन सी बुनाई में…
रोना-धोना सब सीख लिया,
कुछ ऐसी पिड़-पराई में…
✍विकास कुमार लाभ
मधुबनी(बिहार)