बेतरतीब सी पड़ी अपनी अलमारी को समेटते
ख़्याल आया क्यों हम बेकार चीजों को नहीं फेंकते,
सदियों तक पुरानी बेकार जगह घेरती चीजों का
क्यों हम मोह नहीं छोड़ पाते,
क्यों उन्हें हम जिंदगी से नहीं निकाल पाते
क्यों कबाड़ को हम जान से है लगाते।
जगह घेरती फालतू सी चीजें अनचाहा बोझ बनती जाती
और फिर रह-रहकर अक्सर हमें सताती।
बस कुछ इसी तरह हमारे दिमाग की अलमारी
भी पुरानी यादों से भरी ,दुखों से जड़ी यादों को
दिमाग में घेरे रखती खाली ना होती
ना जाने खुशियों के पल याद क्यों ना आए
ग़म रोज जबरदस्ती दस्तक देते जाए,
अच्छा हम भी उस कबाड़ को दिलों जान से लगाए रखते
उसी कबाड़ में अपने आज को जलाए रखते
करें कोशिश बेतरतीब अलमारी को
खुशियों से सजाएं वक्त बेवक्त अपना दिल ना जलाएं
नए साल के नये वायदे ,खुद पर ऐतबार करते जाएं,
दिसंबर की तरह उन यादों को विदा कर जाए,
खुलकर हंसे और अच्छे वक्त के इंतजार में
जरूर खिलखिलाएं ,थोड़ा हंसे थोड़ा मुस्कुराए,
अपनी जिंदगी की खुशियों की चाबी
किसी गैर के हाथों में ना थमाएं।
स्वरचित सीमा कौशल यमुनानगर हरियाणा