आदमी खिलौना वक्त के हाथों का,
कभी हंसता तो कभी रोता है,
जिस ओर भी ले चले पवन,
उस ओर ही बह जाता है।
विधाता ने जो पटकथा है लिखी,
कहां कोई उससे बच पाता है,
रोकर जियो या हंसकर जियो,
जीना तो सभी को पड़ता है।
कभी आंधी, कभी तूफानों से,
कभी बगिया से गुजरना पड़ता है,
रास्ते भले हों अलग-अलग,
मंजिल सबका एक हो जाता है।
छोड़ो अहंकार, घृणा में जीना,
यह कुछ नहीं दे पाता है,
मिलकर जी लो साथ सभी के,
कुछ नहीं तो सुकून दे जाता है।
स्वरचित रचना
समस्तीपुर, बिहार
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