शाम ढलने को थी। अभी गर्मी से कुछ राहत मिलने लगी थी, फिर भी लू की गर्माहट महसूस की जा सकती थी, बगीचे के पेड़-पौधे भी दिन भर की लू और तपिश से जल रहे थे, जिनको अपने प्यारे-प्यारे हाथों से संभालती मालती जी बगीचे में पानी देती हुई घूम रहीं थीं। कोई-कोई पौधा बिल्कुल ही कुम्हला गया था तो कोई अभी भी अपने आपको संभाले हुए था।
प्रकृति कितनी सहनशील होती है, यही सोचते हुए वो अपने पसंदीदा फूल मोगरे के पौधे को ध्यान से देख रहीं थीं। सोच रहीं थीं भगवान ने हर तरह की रचना की है कोई गर्मी सहन करके खिलता है तो कोई ठंड।
गर्मियों में ताप सहन करके भी मोगरा, चंपा, कामिनी, चांदनी के पौधे, कितने फूल देते हैं। यह भी एक खूबी है कि सभी फूल सफेद रंग के होते हैं जो हमें यह संदेश देते हैं कि सूरज कितना भी लाल हो, कितनी भी आग बरसाता हो, पर ये सभी फूल उस तपिश भरी दोपहर में भी हॅंसते ही रहते हैं, और अपनी महक से सभी को खुश कर देते हैं।
इनके सफेद रंग से कितनी शांति मिलती है।
हमारा जीवन भी तो ऐसा ही होता है कितनी ही खट्टी-मीठी यादें हमें कभी खुशी कभी ग़म देती हैं।
सोचते-सोचते मालती जी कहीं खो गईं। जैसे कल ही की बात हो जब इस घर में ब्याह कर आई थी, मेरे हाथों की मेंहदी भी नहीं छूटी थी कि सारे काम मुझे ही करना पड़ गये थे। बस यही विचार हमेशा किया कि अब यही घर अपना है इसी को अपने हाथों से संवारना है। पर सभी को लगा भले बनने का नाटक है ये तो।
जल्दी ही हर नारी को मिलने वाला अनोखा सुख मुझे भी मिला। पर कोई भी तो नहीं था समझने वाला कि नई नवेली विवाहिता को सभी बातें समझाना चाहिए। मैं चाहे कितनी भी पढ़ी लिखी थी पर व्यवहारिक ज्ञान से अंजान थीं। बहुत अधिक पढ़ने से किताबी कीड़ा तो बना जा सकता है पर व्यवहारिक बुद्धि नहीं आती।
मैं चाहे कितना भी मजबूत बने रहने की कोशिश करती, पर अंत में मैं ग़लत ही साबित हो जाती। धीरे-धीरे मेरा तो आत्मविश्वास ही डगमगाने लगा और हर ओर गलती ही दिखने लगी। चाहे कितने भी काम कर लेती पर कमी सिर्फ़ मेरी ही दिखाई जाती।
ना मायके का सहारा था ना पति से ही सहानुभूति मिलती। धीरे-धीरे ननद और जेठानियों में हॅंसी का पात्र बनने लगीं।
समय बीता और मेरे जीवन में आया मेरा लाडला, बहुत ही प्यारा, मेरा पुत्र। पर मेरी किस्मत कहें या कुछ और, वहॉं भी मेरी ही गलती बताई गई। कारण मेरा रंग सॉंवला था और बेटा दूध से भी गोरा। कहा जाने लगा क्या श्वेत-श्याम का संमिश्रण हैं दोनों।
अभी तो जीवन के बहुत से रंग देखने बाकी थे, मेरे जीवन में भी एक क्षण बुरा तब आया जब जेठ जी और ससुर जी ने मिलकर हम दोनों को अलग करने की योजना बनाई और दोनों भाईयों में भयंकर युद्ध की स्थिति बन गई। इस गृह युद्ध का तमाशा बनने लगा, तब मैंने ही अपने बच्चे और पति के लिए एक कड़वा घूंट पिया और एक मजबूत निर्णय लिया कि बस अब साथ रह कर सिवा जिल्लत के और कुछ नहीं मिलेगा।
तब कुछ हिम्मत करके अपना आशियाना अलग बनाया और अपने बच्चे को उचित पालन-पोषण देने के लिए अपना स्वयं का काम शुरू किया। खाना बनाना तो शुरू से ही बहुत अच्छा लगता था तो बाहर से आने वाले बच्चों के लिए टिफिन सेंटर खोल लिया। सब अच्छा चलने लगा था खुशियां आ रहीं थीं।
पर मैं भी तो एक फूल का ही नाम थी ना। हर तरह के झंझावातों से लड़ती हुई आगे बढ़ती रही और अंत में अपने बच्चे को एक उज्जवल भविष्य दिया।
आज इन्हीं फूलों की तरह ही तो हमारी बगिया भी महक रही है। हमारा होटल अब अच्छा चलने लगा है। बेटे ने होटल मैनेजमेंट का कोर्स करके मेरे टिफिन सेंटर को होटल में बदल दिया।
सभी का मुॅंह बंद कर दिया।
मालती अपनी बगिया को देखते हुए अपनी खट्टी मीठी यादों से बाहर आईं, तो देखा उनकी जुड़वां पोतियॉं उनसे लिपटी हुई हैं। मालती ने अपनी बहू को सारी सुख-सुविधाएं दी हुई हैं जिससे उनके बीच सास बहू का रिश्ता ना होकर मां बेटी का रिश्ता है।
मालती की हार्दिक इच्छा थी कि जो उनके साथ हुआ था वो उनके बच्चों के साथ ना हो।
जब बच्चे हमें वो खुशियां देने लगते हैं जिनसे कष्ट कम से कम हो तो संतुष्टि मिलती है। पर यह भी सच है कि हर व्यक्ति के जीवन में हमेशा खुशियां ही नहीं होतीं ग़म भी होते हैं। इसी का नाम तो जीवन है।
© मनीषा अग्रवाल
इंदौर मध्यप्रदेश