मां का लाड़ला था एक लाल
सपनों को पंख लगाए निकला अनजान
भूल गया वो हिफाज़त सर की
आ पहुंचा तब ही महाकाल
अन्त समय में मात पिता का मुख
याद कर रोया वो बालक नादान ,,
टूटने को जीवन की डोर पल दो पल भारी
मां की करुण पुकार से गूंजी धरती सारी
पिता के हाथ से छूट रही थी बुढापे की लाठी,,
वोह ख़ुद को कर दान जीना चाहता था बाक़ी
अर्ज़ यहीं मात पिता से कर रहा था
रहू मैं चाहे न ,मेरा अंग अंग तो महकेगा
किसी की आंखों में सपना बन चमका करूं
किसी के हृदय में प्रेम बन फड़का करूं
शरीर तो मिट्टी बन यहीं रह जाएगा
सोच तो मां , तेरा बेटा किसी के काम आएगा,,
सुन बात लाल की हिम्मत की उस मां ने
समझा ख़ुद को पहचान नई दिलाई मां ने
एक लाल उसका तो दूर चला गया जहां से
कई घरों के दीपक की लौ जला गया तन से,,
रखो एक ही बात अपने मन में
आ सको तुम किसी के काम
इस से अच्छा नहीं कुछ इस जीवन में ……….
© रेणु सिंह ” राधे ” ✍️
कोटा राजस्थान