किताब हूँ मैं
चलती-फिरती
किताब हूँ मैं।
समेटे अनगिनत शब्दों को
कभी लहलहाती नदी सी
कभी खामोश सी हूँ मैं।
किताब हूँ मैं।
हंसाती -रुलाती
गम-खुशी में डुबोती
शब्दों के सागर में
डुबोती।
किताब हूँ मैं।
मानवीय संवेदना को
अंतर्मन की स्याही में डुबोकर
काले अक्षरों में समेटती
किताब हूँ मैं।
कभी खुली
कभी बंद
कई रंगो से सजी
कुछ को पसंद
कुछ को नापसंद
किताब हूँ मैं।
हा खाती-पीती
जीती -जागती
किताब ही तो हूँ मैं।
गरिमा राकेश ‘गर्विता’
कोटा राजस्थान