शीर्षक- “कारवां- धुंआ धुंआ”
धरा पर सजी थी महफ़िल,
उत्साही कारवां था हरदिल,
आतंकी सैलाब ऐसा आया,
सब धुआं धुआं हो गया।
दुश्मनों ने चाल चल कुहराम
मचा दिया,
जहाँ बहार थी हँसी की,
वहाँ लहू औ रुदन का सैलाब
बह गया।
सो गए थे सब वहाँ,
कोई सांस न बची थी,
हवा संग रज उड़कर ऐसी आई,
मानो मेदिनी कफन उढ़ा गई।
चल पड़े देश के नौनिहाल,
ले बारूद और ढाल,
सर पर बाँधकर कफन,
आतंकियों को धूल चटा आए।
फिर कभी न कर सकेंगे साहस,
नज़र उठाकर भी देखें,
ऐसा ही सबक देकर आए।
धुंआ धुंआ सा कारवां उड़ता
चला गया,
किसी का लाल चला गया,
किसी का भाई विदा हुआ,
किसी की गोद सूनी हो गई,
किसी का सिंदूर धुल गया।
जिसने आग से धुंआ उठाया था,
तबाही के कारवां में वो खुद को मिटा गया।
आतंक की आग में सब कुछ झुलस गया।
अरे! इस धुएं के कारवां में,
खोने के सिवा मिलना कुछ नहीं।
तो क्यों न नेह की शीतल छांव फैलाओ,
युद्ध के कारवां को शांति का जुलूस बना डालो।
रचनाकार- सुषमा श्रीवास्तव मौलिक कृति,सर्वाधिकार सुरक्षित, रुद्रपुर, उत्तराखंड।
