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ओ गुलमोहर तू कैसे खिलता है इतनी कङी धूप में?
विस्तृत लाल रंग की चुनर में जैसे कोई परिणिता
जीवन के कङे धूप को अपनी हंसी से झूठलाती
अपने विश्वास पर अडिग अपने नीङ के निर्माण
को उत्सुक हो अनंत आकाश सी विस्तृत हो चली है;
ये सूर्ख लाल फूल तेरी गरिमा को संजोए,
मुस्कुराते जीवन का अभिनन्दन कर रहे!
बिखर कर दूर तक फैले हुए
मृतिका कण को भी तृप्त कर रहे!
जब नन्हीं ओस कणों से मिलकर
मृदा को भी जीवंत कर उठेंगे
और पनपेंगे सूक्ष्म जीव कोटि- कोटि
संख्य -संख्य !!
जीवन – जीवन धन्य -धन्य
और वसुन्धरा कर उठेगी अभिनन्दन अभिनन्दन!
जीवन जीवन को प्रतिफलित करता!
है वही अमृत सम!
ओ गुलमोहर तू कैसे झूठला देता..
हवाओं की तीखी प्रहार ,,
और तीखी किरणों की बौछार!
तुझे मिलती झंझावतें
पर तू कैसे लौटाती है खिलखिलाहटें!!
डॉ पल्लवीकुमारी”पाम”
अनिसाबाद, पटना,बिहार