आसमाँ से गिरती हुई वो ओस की बूंदें,
भोर की स्वर्णिम रश्मि में हरीतिमा कहलाती है।
अनगिनत विन्दुओं से पिरोई हुई वो कोपलें,
धरा पर दुलहिन सी सज जाती है।
तरु पल्लव पर चमकती जैसे,
मोती हो समंदर का।
चाँद की ज्योत्स्ना पाकर,
आँचल सजा देती है अम्बर का।
हौले-हौले अहसास से,
तन को सिहरनसे भर देती है।
फूलों की पंखुड़ियों घास,
और लताओं को आकर्षित बनाती है।
गुनगुनी वो धूप सुबह की,
भ्रमर का कलियों को स्पर्श करना।
पर्वत,नदियां वन और प्रकृति का अनुपम सौंदर्य,
आसमाँ में हल्की सी धुंध आध्यत्मिकता का अहसास करना।
ओस की इन बूंदों में,
छिपे रहते है अनेकों अहसास।
कवि,योगी,सन्त,और प्रेमी सबका अलग अहसास।।
शीला द्विवेदी “अक्षरा”
उत्तर प्रदेश “उरई”