तुम लगते हो क्यों मुझे बहुत  ही निरीह
 जाने असहाय से लगते हो क्यों कभी कभी
मैं अबला, निसहाय, बेचारी होकर भी 
शायद कर लूं गुजारा बिना सहारा,
 पर तुम पुरुष बलशाली ,शासक ,अहमी ,सर्वशक्तिमान 
होकर भी शायद रह जाओ बेसहारा।
नहीं कर पाओगे गुजारा ,
शायद सामंजस्य बिठाना तुम्हें नहीं आता
 और बिना मेरे शायद जीवन तुम्हें नहीं सुहाता।
तुम्हारा बात बेबात झल्लाना
 मुझे पल-पल जतलाना 
पैसा कैसे हैं कमाना ?
पर नहीं कहा कभी मैंने कि गृहस्थी का बोझ
 कैसे पड़ता है उठाना
 कैसे पड़ता है इच्छाओं को पल-पल मारना
 अनचाहे मेहमानों का बोझ पड़ता है उठाना?
क्योंकि तुम्हें नहीं है एहसास
 कि आज महंगाई ,ग्रहणी और रसोई
 एक साथ एक दूसरे से रहे हैं जूझ,
एक एक वस्तु का पता वस्तुत: रहे हैं पूछ
उस पर तुम्हारे बिन बुलाए मेहमान ,
बजट को गड़बड़ाते हैं और सच में
 ना चाहते हुए भी रिश्तो में कड़वाहट लाते हैं।
जरा सोचो 
क्या अकेले तुम इन सब को संभाल पाओगे 
या फिर इन सब में ही उलझ कर रह जाओगे
पर फिर भी जिंदगी का नहीं पता
 सांसे कब दे जाए दगा 
 खुद को संभालना हर मोर्चे पर ही
 जिंदगी की एक सीढ़ी है
और हां स्त्री वर्तमान ,भूत ,भविष्य में परिवार की धुरी है।
जमाने में जिंदगी के कड़वे एहसासों 
को झेलने की कला अब तुम जान लो 
कौन अपना कौन पराया अब तो  पहचान लो 
तभी शायद तुम मुझ बिन रहना सीख पाओगे
 और तब ही तुम मुझे बेबस ,असहाय
 ,निरीह नहीं लग पाओगे।
स्वरचित सीमा कौशल यमुनानगर हरियाणा
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