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जब भी मुफ़लिस ने जमीं पर, अपना कोई ख्वाब बनाया।
उम्रभर लेकिन मंजिल पर , कभी वह पहुंच नहीं पाया ।।
जब भी मुफ़लिस ने जमीं पर——-।।
हर किसी ने कहा उससे, यह तेरा काम नहीं है।
उन सितारों के जहाँ में , लिखा तेरा नाम नहीं है।।
बहाकै अपना लहू वह , नसीब बना नहीं पाया ।
जब भी मुफ़लिस ने जमीं पर——।।
मनाने को वह रब को, जाता था मंदिर में रोज।
करता था सेवा उसकी, झुकाता था सिर वह रोज।।
करके अर्पण रब को सब, खुदा से मिल नहीं पाया।
जब भी मुफ़लिस ने जमीं पर——-।।
जंग लड़ा आजादी की वह, बनाया ताजमहल को।
उसने मेहनत जितनी की, उतना फल नहीं मिला उसको।।
सबको बांटी उसने खुशियां,सम्मान उसे मिल नहीं पाया।
जब भी मुफ़लिस ने जमीं पर——-।।
सभी की उसने मदद की, लिया दर्द उसने सभी का।
जलाना चाहा चिराग तो, बुझ गया चिराग उसका।।
दर्द से वह तड़पता रहा, रहम किसी को नहीं आया ।।
जब भी मुफ़लिस ने जमीं पर——-।।
रचनाकार एवं लेखक-
गुरुदीन वर्मा उर्फ जी.आज़ाद
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