मैं कुसुम…. 
दो बच्चों और अपनी सासुमाँ के साथ मारवाड़ में एक छोटे से घर में रहतीं हूँ..। पति फौज में थे।जिनका एक लडा़ई के दौरान इंतकाल आठ साल पहले ही हो चुका हैं..। 
बड़ी बेटी पन्द्रह साल की हैं और छोटी बारह साल की..। उनकी मृत्यु के बाद शुरुआत में बहुत मुश्किल हो रहीं थी…। बच्चे भी छोटे थे और माँ जी की तबियत भी ठीक नहीं रहतीं थी..। एक फौजी की बीवी थी इसलिए इस बात के लिए हमेशा तैयार रहतीं थी कि पता नहीं कौनसी मुलाकात आखिरी हो जाए..। लेकिन जब सच से सामना होता है तो संभलना बहुत मुश्किल होता हैं..। 
वक़्त लगा लेकिन संभल गई..। 
लेकिन मेरे संभलने में और आज अपने पैरों पर खड़े होने में अगर किसी का सबसे बड़ा योगदान हैं तो वो हैं…. एक कप चाय…. का..। 
आप हैरान हो गयें ना कि यह कैसे मुमकिन हैं..!! 
दरअसल मेरे पति की मृत्यु के बाद घर में कोई पुरुष नहीं रहा था… हमारे पड़ोस में रहने वाले अफज़ल भाईजान अक्सर माँ जी की दवाईयां और बच्चों के स्कूल की जिम्मेदारी उठाने लगे थे..और हर बार बदले में सिर्फ एक कप चाय की डिमांड करते थे..। 
उनका कहना था कि मैं चाय बहुत अच्छी बनातीं हूँ..। 
अफज़ल भाईजान हमारे पड़ोस में ही रहते थे और एक कपड़े की दुकान पर काम करते थे..। 
माँ जी उनकों अपना दुसरा बेटा मानती थी.. वो हर रोज़ सुबह बच्चों को स्कुल ले जाने के लिए घर आतें और सुबह की चाय पीकर ही जातें..। कई बार अगर किसी काम से भी घर आतें तो चाय जरूर पीते..। ना जाने क्यूँ पर वो हर बार चाय जरुर मांगते थे..। 
ये चाय का सिलसिला सालों से चल रहा था…। 
एक दिन अफज़ल भाईजान दोपहर के वक़्त घर पर आए और  माँ जी के हाथों में कुछ रकम रखते हुए बोले… माँ जी अब आपको और भाभी जान को किसी तरह का कर्ज लेने या किसी के आगे हाथ फैलाने की जरूरत नहीं हैं….. मैं जानता हूँ.. महेंद्र के जाने के बाद आप ना जाने कितना कर्ज ले चुके हैं… अपना जमा रकम खत्म कर चुके हैं… पर अब बस..। ये पैसे रखिये… और बाकी सब इंतजाम भी मैने कर दिया हैं….। 
कैसा इंतजाम भाईजान…. मैनें आश्चर्य से पुछा..। 
अफज़ल:- भाभी आपको क्या लगता हैं… मैं आपकी चाय की तारीफ ऐसे ही करता हूँ… नहीं भाभी… सच में आपके हाथों से बनी चाय में एक अलग ही बात हैं…और इसलिए भाभी मैंने मेरी दुकान के बिल्कुल सामने एक छोटी सी चाय की थपड़ी खरीद ली हैं… अभी आप वहाँ चाय बनाएंगी..। बाकी का सारा काम में संभालुंगा….। दूध, चायपत्ती, शक्कर, अदरक, इलाईची, मसाला, कप, प्लेट, बिस्किट….. सब मैं देख लुंगा..। आप बस वैसी ही चाय बनाइयेगा जैसी मुझे देतीं हैं…. फिर देखिएगा   ….. हर कोई आपकी चाय का दिवाना हो जाएगा….। 
लेकिन भाईजान….. मैं दुकान….. कैसे…. नहीं नहीं….. घर पर माँ जी अकेले….. नहीं भाईजान…. मुझसे नहीं होगा…. और फिर लोग क्या कहेंगे….. औरत होकर चाय बेच रही हैं…।
अफज़ल:- भाभी…. लोगों का काम हैं कहना… जब वो आपके हाथ की चाय पियेंगे तो समझ जाएंगे…. और रहीं बात मांजी की तो अब गुड़िया समझदार हो गई हैं…. और फिर हम सिर्फ सुबह में ही ये काम करेंगे…. बाकी वक़्त तो आप घर पर ही रहना…। 
माँ जी:- लेकिन बेटा…. तु हमारे लिए इतनी तकलीफ क्यूँ उठा रहा हैं…। 
अफज़ल:- तकलीफ नही मां जी…. आपकी चाय का कर्ज उतार रहा हूँ..। भाभी अब कोई बहस नहीं… कल हम एक नई शुरुआत कर रहे हैं… बस..। और आपकी दुकान का नाम होगा… महेंद्र टी स्टाल….। 
अभी इसी खुशी में हो जाए …..एक कप चाय…..।
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