चाय की महिमा भगवान शिव की तरह अनंत है, चाय पर जितना भी लिखा जाये शायद वो कम ही रहेगा।
चाय ने सदा ही मृतप्राय मानवीय संबंधों को निर्मित, पुनिर्मित किया है।
चाय ने मानवीय जीवन को एक नई दिशा दी है, चाय ने ही बुद्धिजीवी वर्ग को नए अविष्कारों और नए विचारों की ओर अग्रसर किया है।
आप बिना चाय के जीवन की कल्पना करके देखिए जीवन कितना नीरस, स्वादरहित और आलस्य में डूबा हुआ नजर आता है।
आज आप बिना चाय के सुबह की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं, सुबह की शुरुआत ही चाय से जुड़ चुकी है।
यूँ तो कॉफ़ी ने भी काला जादू चलाने में कोई कसर नहीं छिड़ी है लेकिन उसका आकर्षण केवल कुछ विशिष्ट वर्ग तक ही सीमित रहा है, शायद उसके काले रंग ने उसे निखरने का पूर्ण अवसर नहीं दिया।
जब अंग्रेज भारत में आये तो अपने साथ चाय रूपी ब्रह्मास्त्र लेकर आये।
ब्रिटिश महापुरुषों ने ब्रह्ममुहूर्त में उठने वाले, दूध, दही और मठ्ठे का सेवन करने वाले भारतीयों को उनकी पिछड़ी मानसिकता का दर्शन करा के उन्हें चाय रूपी अमृत पेय पदार्थ से अवगत कराया।
चाय के उचित सेवन के लिए कुछ महत्वपूर्ण शर्तें लागू होती हैं जैसे कि आप चाय का सेवन सुबह ब्रह्ममुहूर्त में नहा-धोकर नहीं कर सकते हैं यदि आप ऐसा करते हैं तो आज भी आप उसी पिछड़ी मानसिकता से जुड़े हुए हैं और आप चाय का सेवन कर इस सम्मानीय पेय पदार्थ का घोर अपमान कर रहे हैं।
चाय सेवन के लिये सबसे अनुकूल परिस्थिति और स्थान आपका आलस में लिपटा हुआ आपका शरीर को शिलवटों वाला बिस्तर है, ये आपको बिस्तर में ही नित्य क्रिया के पूर्व ही पीनी है।
भारत में धीरे-धीरे लघु उद्योगों को नष्ट करने के साथ-साथ ईस्ट इंडिया कंपनी ने सबसे पहले आलसी और भोगविलासी राजाओं, नबाबों, जमींदारों को चाय सेवन की अनुकूल परिस्थिति में ढाला, जब उन सबको चाय पीने में महारत हासिल हो गयी फिर उसके बाद नीचे तबकों को जैसे सैनिकों, साहूकारों और किसानों को भी इसमें महारत दिलवायी।
धीरे-धीरे चाय हर महत्वपूर्ण समारोह, समझौते और बैठक में एक अनिवार्य पेय पदार्थ के रूप में उभर के सामने आयी।
किसी भी युद्ध के प्रारंभ से लेकर समापन तक चाय ने संधि वार्ता में अविस्मरणीय भूमिका निभाते हुए सदा ही उचित परिणाम दिए।
बहुत सारे भारतीय रजवाड़े और रियासतें चाय के आयात के एवज में अंग्रेजों ने खा लिये।
राजनीति में तो चाय का कोई सानी नहीं है, हमारे राजनीतिक सेवकों द्वारा ना जाने क्या-क्या चाय के साथ निगल लिया जाता है।
आजादी के बाद ना जाने कितनी ही मानवीय जातियाँ-प्रजातियाँ चाय का सेवन ना करने के कारण विलुप्त सी हो गयीं हैं।
भारत जैसे आध्यात्मिक देश में जहाँ लोग जातिवाद और क्षेत्रवाद में बंटे हुए हैं, चाय ही एक मात्र साधन है जो लोगों को आपस में जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, चाय ने धर्म, जाति से बाहर निकल कर हर घर में अपनी एक विशेष जगह बना ली है, चाय के सेवन मतलब आप निरन्तर विकास के पथ पर अग्रसर हैं।
आज कल कुछ ऐसी पिछड़ी संस्थायें भी हैं जो हमें रोगों और आयुर्वेद के नाम पर चाय से दूर करना चाहतीं हैं, लेकिन चाय ने समय-समय पर हर विरोध का कप तोड़ ज़बाब दिया है।
आज अगर मदिरा हमारे देश की जीडीपी में अहम भूमिका निभा रही है तो चाय भी मदिरा से कहीं भी उन्नीस साबित नहीं होती है।
कभी-कभी मुझे लोकतंत्र में भी नेपोटिज़्म का आभास सा होता है कि चाय को राष्ट्रीय पेय क्यों घोषित नहीं किया गया, शायद उत्पादन क्षेत्र विशेष के कारण चाय भी नेपोटिज़्म का शिकार हुई है।
हर चाय प्रेमी को नमन तथा चाय विरोधी अराजक तत्वों के लिए सद्बुद्धि की कामनाओं के साथ।
एक चाय प्रेमी
रचनाकार – अवनेश कुमार गोस्वामी