लेकर ‘पिता’ का रूप, 
 स्वयं ईश्वर धरा पर आते हैं, 
किंतु मंदबुद्धि के मनुष्य, 
ये कहां समझ पाते हैं। 
ईश्वर ,अल्लाह को तलाशने, 
मंदिर मस्जिद को जाते हैं, 
अपने कटु शब्दों से ईश्वर स्वरूप , 
‘पिता’ के हृदय को ठेस पहुंचाते हैं। 
नित धूप में तपते हैं, 
आंधी तूफानों से भी कहाँ डरते हैं, 
जिम्मेदारियों तले दबे रहते हैं, 
 फिर भी ये कहां थकते हैं। 
पिता आसमा  हैं , 
पिता से मां का श्रृंगार  हैं ,
पिता है तो सपने हैं ,
पिता है तो सारी ख्वाहिशें अपने है। 
हर त्योहार पर वह सबके लिए, 
झोली भरकर उपहार लाते हैं, 
किंतु ना जाने वह क्यों, 
अपने लिये ही भूल जाते हैं। 
अंदर से हताश- निराश होकर भी, बच्चों के समक्ष मुस्कुराते हैं ,
देख बच्चों की खुशियां 
वह भी खुश हो जाते हैं । 
शास्त्रों में भी कहा गया है , 
न तो धर्मचरणं किंचिदस्ति महत्तरम्
यथा पितरि शुश्रषा तस्य वा वचन क्रिपा। 
अर्थात पिता की सेवा अथवा, 
उनकी आज्ञा का पालन करने से, 
 बढ़कर होता न कोई धर्माचरण। 
गर करनी हो भक्ति ईश्वर की , 
तो पिता का सम्मान करो, 
शायद इसलिए लेकर ‘पिता’ का रूप
स्वयं ईश्वर धरा पर आते हैं। 
 
गौरी तिवारी 
भागलपुर ,बिहार
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