नारी जीवन के सात पड़ाव पुरुष के साथ बिल्कुल सावन के महीने के इंद्रधनुष जैसे ही सुंदर व ओजस्वी होते हैं।
१. जन्म लेते ही जो प्रथम पुरुष उसके समक्ष होता है, वह पिता होता है । जिसे उसके आने की खुशी सबसे ज्यादा होती है । जो उसके चेहरे की खुशी देख , दिन भर की थकान भूल जाता है । बेटी की विदाई पर सबसे ज्यादा तकलीफ जिसे होती है , वह पिता होता है ।
२. भाई के रूप में बहन को एक ऐसा संबंध मिलता है, जिससे लड़ना , रूठना, मनाना और शिकायत का हक मिलता है । बहन की रक्षा की चिंता सबसे ज्यादा भाई को होती है । वह किस समय कहां है , उसकी पूरी खबर भाई रखता है । सिर्फ एक राखी से बंधा यह अनमोल रिश्ता है ।
३. शादी के बाद शुरुआती दौर में पत्नी होकर , काफी जगह उसे समन्वय स्थापित करना पड़ता है , क्योंकि वह उस घर में नई है। ऐसे समय में पति उसका साथी होने की अहम भूमिका निभाता है । पत्नी के चेहरे की मुस्कान पति के लिए लोटरी से कम नहीं होती ।
४. ससूर के रूप में उसे पिता ही मिलते हैं , जो उसे उसकी गलती होने पर मां समान सास की डांट से बचाते हैं । बेझिझक महेमानो के बीच जो बहू की तारीफों के पूल बांधते हैं ।
५. देवर के रूप में उसे मानो बेटा ही मिल गया हो । देवर भाभी का ख्याल बेटे या भाई से कम नहीं रखता । जैसे यदि भाभी ने कुछ कहा है लाने को तो देवर बिना भूलें ला देता है । कभी कभी पति भी सामान लाना भूल जाएं मगर देवर कभी नहीं ।
६. स्त्री जब मां बनती है तो जब उसके जीवन में बेटे का आगमन होता है तब वह बेटा लिंगभेद नहीं जानता । वह पूरी तरह से मां का होकर रहता है , यहां तक कि पहला शब्द भी वह ‘ मां ‘ ही कहता है ।
७. सांस बनने पर स्त्री अपने आप को गौरवान्वित महसूस करती है । दामाद बाबू का बेटे से भी अधिक ख्याल रखती है तो जमाई जी भी उसे मां होने का विशेष दर्जा देते हैं । घर के कुछ अहम फैसलों में जितना साथ बेटी मां का देती है उतना ही दामाद भी देते हैं।
यह सारे पड़ाव स्त्री के लिए सुखद एवं सुरक्षा देने वाले हैं । फिर भी स्त्री यदि स्वयं को सुरक्षित नहीं पाती है तो यह विषय गहन विचारणीय है कि चूक कहां हो रही है ।