आज घर के अंदर कमरे के अंधेरे कोने में दुबके बैठे आदित्य सिंह को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था।
हाथ में पकड़े उस कागज के टुकड़े को बार-बार कसते जा रहे थे।
१९ साल पहले जब उनके घर में उनकी नन्ही सी बेटी के कदम पड़े तो आदित्य सिंह मारे खुशी के फूले नहीं समा रहे थे, सदैव से ही स्त्री-पुरूष समानता के पक्षधर रहे आदित्य सिंह ने ईश्वर से भी पुत्री को ही माँगा था।
इस खुशी के मौके पर उन्होंने बहुत बड़ी मात्रा में पूरे गाँव में मिष्ठान वितरण करवाया और पुत्री का नाम दिव्या रखा लेकिन प्यार से वो उसे हमेशा बेटा ही बुलाते थे।
बचपन से लेकर कल तक की ना जाने कितनी ही सुंदर अविस्मरणीय यादें थीं पिता और पुत्री के इस निश्छल प्रेम की।
हालांकि बाद में उनके दो पुत्र भी हुए पर उनके हृदय में स्नेह और प्रेम का एक अदृश्य भाग सदैव दिव्या के लिये उमड़ता रहता था।
बचपन से लेकर कल तक उन्होंने दिव्या की हर इच्छा का सम्मान किया और यथासम्भव उसको पूर्ण करने का प्रयास भी किया।
ईमानदारी और सच को अपना आदर्श मनाने वाले आदित्य सिंह ने हमेशा अपने बच्चों में भी अच्छे संस्कार देने का पूर्ण प्रयास किया, सदैव नई विचारधारा और नई सोच को सम्मान देकर उसको आत्मसात करने का प्रयास भी किया।
उन्होंने दिव्या को मानसिक और वैचारिक मजबूती दी, उसको सदैव उत्साहवर्धित किया।
पढ़ाई में अव्वल दिव्या सामाजिक क्रियाकलापों में भी बढ़-चढ़ कर भाग लेती थी, गृहकार्य में निपुणता उसकी माँ की देन थी।
स्कूल के पुरस्कार वितरण में दिव्या हमेशा प्रथम स्थान पर रहती जो आदित्य सिंह को हमेशा गर्वान्वित होने का अवसर देती।
एक पिता दिन-रात मेहनत कर अपनी संतान के लिए सुनहरे स्वप्नों का एक संसार बुनता है, उन्हीं स्वप्नों को सजाने में, पूरा करने में अपना सम्पूर्ण जीवन गुजार देता है, ऐसे ही कुछ सपने आदित्य सिंह के नेत्रों में भी बसे हुए थे।
पिता भी एक विचित्र प्राणी है, वो जीवित तो मात्र शरीर से होता है लेकिन उसकी साँसे अपनी संतान में ही बसी होती हैं, वो बाजार से भूखा इसीलिए चला आता है क्योंकि उसको घर में बच्चों के खाने के लिए कुछ लेकर आना होता है।
आज एक झटके से आदित्य सिंह के सुनहरे स्वप्नों का सम्पूर्ण संसार टूट कर बिखर गया था, जिसके टुकड़े आदित्य के व्यक्तित्व और अस्तित्व दोनों को वेध रहे थे।
वो समझ और सोच भी नहीं पा रहे थे कि आखिर उनसे गलती हुई कहाँ ?
आखिर क्यों दिव्या ने उनको और उनके परिवार को त्याग कर एक लड़के को चुना।
दुख इस बात से नहीं था कि उसने एक लड़का चुना, वो उसकी आयु और भविष्य को भली-भांति समझते थे, उन्हें पता था कि उनकी पुत्री ने खुद को नर्क की आग जलने के लिए झौंक दिया था औऱ शायद जीते जी ये सब देखने की उनमें सामर्थ्य नहीं बची थी।
समाज की तो बात ही नहीं थी, आज वो अपनी पत्नी के समक्ष जाने का साहस नहीं कर पा रहे थे।
अचानक से आदित्य सिंह के चेहरे पर उमड़े दुःख की जगह एक गहरी गंभीरता ने ले ली।
उन्होंने वो निर्णय ले लिया जिसे वो स्वयं सबसे कायरतापूर्ण कृत्य कहते थे, उन्होंने दिव्या की अलमारी खोली और एक दुप्पट्टा निकाल लिया और छत पर लगे सीलिंग फैन को देखा।
ना जाने कितने सवाल थे उनके अंदर,
ना जाने कितना टूट गए थे वो अंदर से,
ना जाने कितने सपने थे जो आज अधूरे छूटने वाले थे,
ना जाने कितना दर्द था उनके दिल काश वो खुल के रो लेते,
क्या पिता होना हमारे समाज में इतना चुनौती भरा है ?
सहसा आदित्य सिंह ने दुपट्टा फैन में फंसाया और एक फंदा अपने गले में डाल दिया।
एक ऐसी आखिरी अदालत जहाँ से कोई वापस नहीं आता, आदित्य सिंह ने अपनी अर्जी उसी अदालत में लगा दी थी।
काश कोई उन भीगी आँखों और गीले चेहरे के दर्द को पढ़ पाता जो आने वाली मौत से कई गुना भयानक था।
आदित्य सिंह जाने के बाद बहुत सारे सवाल छोड़ गए थे, जिनके जवाब सिर्फ उन्हीं के पास थे।
आईये विचार करते हैं उन पिताओं की भावनाओं पर जो अपना सम्पूर्ण जीवन सिर्फ अपनी संतानों के सुखमय भविष्य के लिए समर्पित कर देते हैं।
आप जीवन में जो कुछ भी कीजिये, चाहे अच्छा हो या बुरा हो लेकिन स्मरण रहे कि एक पिता की गरिमा कभी भी धूमिल ना होने पाए।
पिता को अपनी संतानों से सुख और सम्मान मिलना उसके द्वारा जीवनपर्यंत किये गए त्यागों का फल है।
अनुरोध – मेरे द्वारा लिखित ये कहानी किसी भी परिस्थिति में आत्महत्या जैसे कायरता पूर्ण कृत्य को प्रोत्साहन नहीं देती है।
मेरा उद्देश्य केवल आत्महत्या के पूर्व होने वाली मानसिक यातना और परिस्थिति को आप सब के समक्ष रखना मात्र है।
किसी भी व्यक्ति का अगर जीवन जीने का उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है तो किस कदर मानसिक पीड़ा से गुजरता है।
रचनाकार – अवनेश कुमार गोस्वामी