कविता
आजादी से पहले की सर्दी
बात न अधिक पुरानी है।
नानी ने सुनाई कहानी है।
पहले सर्दी बहुत सताती थी।
हर पल छिन हाड़ कंपाती थी।
दिन रात को आग जलाते थे।
हम तन तपा के ठंड मिटाते थे।
हम सब धरती पर सोते थे।
क्योंकि कपड़े कम होते थे।
कोदौं की घास बिछाकर के,
हम उस पर टाट बिछाते थे।
जब फटे पुराने कपड़े सिलकर,
हम कथरी तीन बनाते थे।
हम दो दो घंटे में उठकर ,
फिर से आग जलाते थे।
सथरी में लेटकर फिर तो हम,
कथरी को ओढ़ सो जाते थे।
कच्चे मकान पटमां बारे,
वो सर्दी में गरमाते है।
वो विन ए सी के घर अब भी,
गर्मी में भी ठंडाते है।
जब तीन बजे से हाथ की चकिया,
सात बजे लौ चलाते थे।
अनाज पीसकर पूरे घर को ,
खाना हम ही बनाते थे।
रूखी सूखी जो बनपाती,,
उसे पेट भर खाते थे।
महुआ के लटा, मठा के संगै,
तन मन स्वस्थ बनाते थे।
जड़ी बूटियों ,नीम कौ काढ़ा,
आंखें मूंद पी जाते थे।
कभी कोई बीमारी पास न,
कभी हमारे आती थी।
पैदल चलकर के बीस मील,
मैं हाट बजारै जाती थी।
जब हम सब खादी के कपड़े,
पहिन मगन हो जाते थे।
बंडी धोती ,कुरती,पोलका,
पहिन मगन हो जाते थे।
जुंडीं की रोटी ,भाजी संग,
बड़े मजे से खाते थे।
गाड़र के बारन कौ कम्बल ,
हम मुश्किल से पाते थे।
महुआ,अचार,तेंदू के पत्ता,
टोर कै, खर्च चलाते थे।
गईया भैंसी कौ,घी बेचकें,
गोरन की तिहाई चुकाते थे।
खेती पजत हती न तनकऊ,
मेंहगाई कौ नामईं ना तो।
पढ़ लिखे ते बिर्रे,बाछे,
बेकारी कौ नामईं ना तो।
जितनी सुबदायें है, अब तौ,
जब इतनौं आरामईं ना तो।
पैलां ते उपकारी नेता।
अब है, भ्रष्टाचारी नेता ।
खाली खजाना है सरकारी।
अब मंहगाई संग बेकारी।
बऊयें ,बिटियां, परीं दुपर लौ,
काम काज की चिंता नईयां।
बन्न बन्न के खाद बीज में,
देशी खाद डरत लौ नईयां।
डरत दबाई सबई फसल में,
बीमारी अब छोड़त नईयां।
चालीस साल में बूढ़े हो रहे,
अब का हौ, बलराम करईंयां।
बलराम यादव देवरा छतरपुर