आज रश्मिरथी  का विषय ही है “आखिरी खत ” क्या बताऊँ खतोखिताबत यानि कि पत्र-व्यवहार का सिलसिला ही एकदम खत्म हो गया है। वो भी क्या सुनहरे आशान्वित दिन थे जब डाकिया महोदय का इन्तजार और देखते ही अपनी डाक के विषय में जानकारी प्राप्त करना भी प्रतिदिन की दिनचर्या में सम्मिलित हुआ करता था। खास-खास मित्रों व परिवारी जनों के पत्रों को सहेज कर रखना, समय मिलने पर उन्हें उलट पुलट कर पढ़ना भी कितना रुचिकर हुआ करता था। सभी के पत्रों का उत्तर लिखना भी आवश्यक कर्त्तव्य में शामिल हुआ करता था। कभी विलंब हो हो जाए तो पत्रोत्तर की प्रथम पंक्ति में ही क्षमा याचना संस्कारित होने का परिचय देती थी।
    अभी कुछ दिन पहले की ही बात है मैं अपनी एक डायरी खोज रही थी कि मुझे सन् 1979 का अपने बाबू जी का लिखा हुआ एक पत्र मिल गया,☺☺😍😍😊😊सच मानिए मैंने उस पत्र को बारम्बार पढ़ा,रखने का मन ही नहीं हो रहा था,तत्कालीन सारे परिदृश्य आँखों के समक्ष चलचित्र की भांति घूम रहे थे। मैं अपने उन एहसासों को शब्दों में पिरो नहीं सकती।उस पत्र के दो माह बाद ही बाबू जी को पैरालिसिस का अटैक फिर सन् 1983 मई में देहावसान।😭😭😭😭😭 सम्भवतः मेरे लिए मेरे पिता का “आखिरी खत ” ही था।
  बस मैं यहीं समाप्त करती हूँ, क्षमा चाहूँगी,आगे लेखन को जारी रखने में स्वयं को असमर्थ पा रही हूँ। लेखनी और कंठ दोंनो अवरुद्ध हो गए हैं भावनाएँ अतीत में विचरने लगी हैं। नयनाश्रु डबडबा आयें हैं। 
जाना ही होगा।
    लेखिका- सुषमा श्रीवास्तव 
मौलिक संस्मरण 
उत्तराखंड।
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