उतरीं हैं आंधियां आंगन में इक इरादे से , 
उतारू कि हर दीप आज बुझाया जाए,
कर के अंधेरा, फिर, 
बल अपना बतलाया जाए!
वो जो ह॔सते हैं मुस्कुराते हैं दौर-ए-गम में भी, 
कि उजाले कम हैं तो क्या, हैं तो…..
हिम्मत तोड़कर उन्हें थोडा सा डराया जाए! 
आंधियां ज़िद पर हैं अगर, 
तो जिद मेरी भी है, ठान लिया है 
वो जो लड़ता है हर तिमिर से अकेला, 
न डरता है न डरने देता है कभी,
यूँ टिमटिमाता है आंगन में मेरे,
कि ध्रुव भी न चमके अंबर में भी!
वो दीप नहीं उजाला है मेरे हिस्से का,
अब, जल भी जाएँ तो गम नहीं, 
कर के ओट हथेलियों की,
उम्मीद के इस दीपक को बचाया जाए! 
तोड सकती हैं घोंसले मगर, 
क्या बिसात है आंधियों की 
कि तोड दे हौसले किसी के,
वो आई तोड़ने फूलों को शाखों  से, 
फूलों ने ठानी है-बिखर कर किसी की राहों को सजाया जाए, 
 बह कर इनके संग संग, इन हवाओं को भी महकाया जाए!  
शालिनी अग्रवाल 
जलंधर
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