ये आदमी जो दौड़ रहा है और भटका सा दिन में लगता है
वो शांत रात्रि में संभल जाता है जैसे कोई संत बन जाता है
खुद को समझा देता है ख्वाहिशों को जज्बा देता है
वो खुद को यही महसूस कराता है के यही तो जीवन हैं
उतारचढाव ,धूप छांव, और न जाने क्या क्या
लेकिन धूप की हथेली भी स्वर्णिम प्रतीत होती है गर महसूस करे तो
दुःख के क्षण भी तो जीवन के क्षण हैं और जीवन के अमूल्य अवसर है
ये क्षण का भी उन्माद से स्वागत हो
हर एक पल में कर्म ही पारसमणि हो
जीवन तो अद्भुत यात्रा है
में को मिलने की और, में से जुदा होने की
हर क्षण अपना गर्व पूर्ण हो
हर दम अपना गरिमा पूर्ण हो
रंजना झा