करता है नादान इंसा ,क्यूं तू अभिमान
फिर न सह पाता ,स्वयं का अपमान ।।
समस्त जनों में, श्रेष्ठ स्वयं को समझता
ओहदे,धन के सिवा उसे कुछ न दिखता ।।
न परिवार , न रिश्ते – नाते महत्व रखते
ऐसे स्वार्थी इंसा को ही अभिमानी कहते ।।
न अपनो के सुख -दुख को वह महसूस करता
स्वयं की पद – प्रतिष्ठा में ही वह मग्न रहता ।।
वाह रे वाह निष्ठुर अभिमानी मानव
इस धरा का तू, जैसे हो एक दानव ।।
पद – प्रतिष्ठा, पैसों का तेरा अभिमान
क्या यही है तेरा , सब कुछ सम्मान ।।
गर दुखियों की ,कुछ सेवा तू कर लेगा
अनजाने में ही , तुझे प्रभु कृपा मिलेगा ।।
दुख जो दूर, किसी की कर पायेगा
तेरा जीवन ही, धन्य हो जायेगा ।।
कर्म रहेगा तेरे संग, अभिमान यहीं छूट जाएगा
अंत में आखिर तू तो इंसा,मिट्टी में ही मिल जाएगा ।।
मनीषा ठाकुर(कर्नाटक)