स्वछन्द ह्रदय से स्वीकार,
प्रेम सदैव आभासीत हुआ,
प्रेम की परिपूर्णता में भी 
प्रेम कब परिभाषित हुआ।।
अपूर्ण प्रेम ही प्रेम की
परिपूर्णता का परिमाप हुआ,
मंदिरों में सृजित स्नेहमय 
राधेकृष्ण का कब मिलाप हुआ।।
प्रेम अनुभूति का गहरा 
विशाल खारा  समुन्दर हुआ,
जन्मों तक प्यास बाकि रही 
पूरा कब‌ किसके अन्दर हुआ।।
 
प्रेम के ही जैसे गुलाब
काॅंटों से लिपटा मिला, 
विविध रंगों में खिलता रहा
उपहारों में सिमटा हुआ।।
प्रतीक्षा से भरे नयन
प्रेम का आधार हुए,
मीलों लम्बे रास्ते 
आसानी से कब पार हुए।।
स्वरचित,
कीर्ति चौरसिया जबलपुर मध्यप्रदेश
Spread the love

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *