जब दिल में प्रेम का अंकुर फूटता है 
तो यह जहां कितना मनोरम लगता है 
आसमान “जन्नत” जैसा दिखाई देता है
“सागर” प्रेम पतवार का खिवैया लगता है 
पत्ती पत्ती डाली डाली “कामनाएं” सी लगती हैं 
फूल किसी प्रेमिका के नाजुक बदन के से अंग 
घने काले बादल नवयौवना के खुले हुए केशराशि 
बिजली “अभिसारिका” के हिय में उठती सी तरंग 
तब प्रकृति से बेसाख्ता प्यार होने लगता है 
मन दुश्मन को भी अपना समझने लगता है 
जड़ , जीव सबमें प्रेमी का वास महसूस होता है
प्रेम के बिना ये जीवन निसार लगने लगता है 
मगर किसी मजहबी तकरीर सुनने के बाद 
दिल में नफरतों का लावा खौलने लगता है 
अंध घृणा में डूबा कोई “फिदायीन गुलाम” 
किसी “कन्हैयालाल” का सिर कलम करता है 
इन नफरतों के शोलों को “भड़काऊ भाईजान” 
वोटों की खातिर और ज्यादा भड़काते रहते हैं 
किसी धर्मस्थल का कोई धार्मिक व्यक्ति उनमें 
72 हूरों का ख्वाब दिखा घृणा का अंकुर भरते रहते हैं 
नफरतों के अंकुर को विशाल वृक्ष मत बनने दो 
जेहादी मानसिकता को शांति भंग मत करने दो 
कुचल डालो तालिबानी सोच का विषधरी फन 
मेरे भारत को सीरिया , अफगानिस्तान मत बनने दो 
हरिशंकर गोयल “हरि” 
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