आज रश्मिरथी के दैनिक लेखन पर विषय आया है > बिन पानी सब सून” तो पाठकों इस संदर्भ में कविवर रहीम दास का एक दोहा याद आ रहा है -:
“रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून। 
पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुष, चून॥” 
रहीम दास जी ने यहाँ पर पानी शब्द का प्रयोग तीन अर्थों में किया है। प्रथमतः पानी शब्द का प्रयोग मोती के लिए किया गया है जिसके लिए पानी का अर्थ ‘चमक’ या आभा से है तो द्वितीयतः पानी शब्द का प्रयोग मनुष्य के लिए किया गया है जिसके लिए पानी का अर्थ प्रतिष्ठा या विनम्रता है तो वहीं पर तृतीयतः चून अर्थात आटा के लिए किया गया है जिसके लिए पानी शब्द का अर्थ जल से ही है।
    अब देखिए उपरोक्त तीनों इस एक पानी के बिना कैसे सूने अर्थात व्यर्थ हैं। जिस प्रकार से यदि मोती में कोई चमक/ आभा नहीं है वह सूना है मतलब की किसी काम का नहीं है व्यर्थ है उसका कोई मोल नहीं है ठीक उसी प्रकार से जिस व्यक्ति की प्रतिष्ठा/इज्ज़त नहीं है या उसमें विनम्रता के भाव नहीं है वह समाज में कोई स्थान नहीं पा सकता,अर्थात उसका जीवन व्यर्थ है बिल्कुल उसी प्रकार से जिस प्रकार बिना जल के संसर्ग में आए चूना या आटा भी व्यर्थ ही होता है। कविवर रहीम ने बड़ी निपुणता से श्लेष अलंकार का प्रयोग करते हुए मात्र एक शब्द को तीन शब्दों के परिप्रेक्ष्य में उसको कितना मूल्यवान बना दिया। 
       निश्चित रूप से मनुष्य अपनी इज्ज़त और विनम्रता के बल पर समाज में एक अहम स्थान बना सकता है,मोती अपनी चमक के बदौलत जौहरी की दृष्टि में बेशकीमती बन सकता है और चूना जल के संसर्ग में आने के बाद ही उपयोगी होता है इसी प्रकार आटा जल के साथ गूंथे जाने के बाद अपनी उपादेयता में वृद्धि कर लेता है।
         यह तो हो गई साहित्यिक परिचर्चा,अब आइए उपरोक्त वाक्यांश का सामान्य जीवन मे सामान्य अर्थ में तर्क सम्मत तोल मोल करें तो पायेंगे कि जनजीवन और पर्यावरण के लिए हवा-पानी अर्थात जल बहुत मायने रखता है इसके बिना जीवन मुश्किल ही नहीं असंभव है। धरती का तिनका तिनका सूखकर पीतवर्णी होकर समाप्ति के कगार पर आ जाएगा।कहने का तात्पर्य है कि जड़-जंगम,चराचर  सारी सृष्टि अपना अस्तित्व ही खोने को मज़बूर हो जाएगी।हवा पानी सारी सृष्टि के लिए अति आवश्यक है इसके बगैर कैसा भी जीवन अकल्पनीय है।
सखि री सुन मेरी बात!
तपता अम्बर,वसुधा तपती 
सर,सरवर, हर नदी बिलखती,
माह जेठ दुपहरी तपती।
घर-आँगन ,खेत खलिहान तपती,
राह चलत राही सब तपते, 
सूखे सब पेड़- बगीचे,
ढोर-डंगर सब ऐसे बिलखते,
बादल क्यूँ भूल गये हैं रस्ते।
आई ऐसी परम विपदा है ,
बिन पानी सब सून सखी री! बिन पानी सब सून।।
धन्यवाद!
लेखिका –
सुषमा श्रीवास्तव 
मौलिक रचना 
उत्तराखंड।
Spread the love

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *